श्री भक्तमाल १५ – श्री महर्षि वशिष्ठ जी
श्री भक्तमाल श्री महर्षि वशिष्ठ जी
ब्रह्मर्षि वसिष्ठ विश्वस्त्रष्टा ब्रह्माजी के मानसपुत्र है । सृष्टि के प्रारम्भ में ही ब्रह्मा के प्राणो से उत्पन्न उन प्रारम्भिक दस मानसपुत्रो मे से वे एक हैं, जिनमें से देवर्षि नारद के अतिरिक्त शेष नौ प्रजापति हुए । १. मरीचि, २. अत्रि, ३. अंगिरा ४. पुलस्त्य ५. पुलह ६. क्रतु ७. भृगु ८. वसिष्ठ ९. दक्ष और १०. नारद – ये ब्रह्मा के दस मानसपुत्र है । इनसे पहले- ब्रह्माजी के मनसे – संकल्प से कुमार चतुष्टय १. सनक २. सनन्दन ३. सनातन और ४. सनत्कुमार उत्पन्न हुए थे परंतु इन चारो ने प्रजा सृष्टि अस्वीकार कर दी । सदा पांच वर्ष की अवस्था वाले बालक ही रहते है ।
इन चारो की अस्वीकृति के कारण ब्रह्मा जी को क्रोध आया तो उनके भ्रूमध्य से भगवान् नीललोहित रूद्र (शिव ) उत्पन्न हुए । इस प्रकार सनकादि कुमार तथा शिव वसिष्ठजी के अग्रज हैं । भगवान् ब्रह्माने अपने नौ पुत्रो को प्रजापति नियुक्त किया । इन लोगो को प्रजाकी सृष्टि, संवर्घन तथा संरक्षण का दायित्व प्राप्त हुआ । केवल नारदजी नैष्ठिक ब्रह्मचारी बने रहे । इन नौ प्रजापतियो में से प्रथम मरीचि के पुत्र हुए कर्दम जी । कर्दम ने स्वायम्भुव मनु की पुत्री देवहूतिका पाणिग्रहण किया ।
कर्दम जी की नौ पुत्रियां हुई और पुत्रके रूपमें भगवान् कपिल ने उनके यहां अवतार ग्रहण किया । कर्दम ने अपनी पुत्रियो का विवाह ब्रह्माजी के मानसपुत्र प्रजापतियो से किया । वसिष्ठजी की पत्नी अरुँधती जी महर्षि कर्दम की कन्या है ।
ब्रह्मा ने सृष्टि के प्रथम काल में ही वसिष्ठ जी को आदेश दिया – वत्स ! तुम सूर्यवंशका पौरोहित्य सम्हालो । वसिष्ठ जी को ब्रह्माजी की आज्ञा सुनकर प्रसन्नता नहीं हुई । उन्होने ब्रह्मा जी से कहा – पौरोहित्य कर्म शास्त्र निन्दित है क्योकि इसमें लगे ब्राह्मण को पराश्रित रहना पडता है । वह आत्मचिंतन के स्थानपर यजमान और यजमान के हित चिंतन में लगे रहने को बाध्य होता है । उसकी आजीविका यजमानपर निर्भर है, अत: यज़मान की प्रसन्नत्ता का उसे ध्यान रखना पडता है ।

यजमान में यदि कृपणता, अश्रद्धा आ जाय तो पुरोहित में चाटुकारी, लोभ, छल आदि दोष आये बिना नहीं रह सकते । ब्राह्मण को सन्तुष्ट, तपस्वी होना चाहिये । तब वह पराये का भार लेका परमुुखापेक्षी क्यो बने ? ब्रह्माजी ने समझाया – साधु महात्मा थोड़े समय के लिए जिनका दर्शन पाने को कठिन से कठिन तपस्या करते है, वे परात्पर पुरूष इस सूर्यवंश मे श्रीराम रूप में आगे उत्पन्न होनेवाले हैं । सूर्यवंश का पौरोहित्य स्वीकार करने से तुम्हें उनका सानिध्य, उनका आचार्यंत्व प्राप्त होगा । वसिष्ठ जी ने यह सुना तो सहर्ष अपने पिता ब्रह्मा जी का आदेश स्वीकार कर लिया । वे सूर्यवंश के पौरोहित बन गये, लेकिन सूर्यवंश का पौरोहित्य वैवस्वत मन्वन्तर में आकर सीमित हो गया ।
भगवान् सूर्य के पुत्र श्राद्धदेव- मनु के दस पुत्र थे । इन सबके पुरोहित वसिष्ठजी ही थे । एक बार उनमें से मनु पुत्र निमिने जो भारत के पूर्वोत्तर प्रदेश के अधिपति थे, जिसका नाम पीछे मिथिला पडा, वसिष्ठजीसे प्रार्थना की- मेरी इच्छा एक महायज्ञ करने की है । आप उसे सम्पन्न करा दें । वसिष्ठ ने कहा – वत्स तुम्हारा संकल्प पवित्र है, किन्तु देवराज इन्द्र एक यज्ञ करने जा रहे है । उसमें मेरा वरण हो चुका है । मैं अमरावती (स्वर्ग की राजधानी) जा रहा हूँ। इन्द्रका यज्ञ समाप्त होनेपर लौटकर तुम्हारा यज्ञ करा दूंगा । निमिने कुछ कहा नहीं ।
Shri Bhaktmal Shri Vashisht Ji
महर्षि वसिष्ठ स्वर्ग चले गये इन्द्र का यज्ञ कराने । स्वाभाविक था कि उनको लौटने में अनेक वर्ष लगते, क्योकि देबताओंका एक दिन रात मनुष्यों के एक वर्ष के बराबर होता है । गुरुदेव के शीघ्र लौटने की आशा नहीं थी । निमिके मनमे आया -जीवनका कोई ठिकाना नहीं है । मृत्यु किसी भी क्षण आ सकती है अत: विचावान को शुभ संकल्प अविलम्ब पूरा करना चाहिये । अच्छे संकल्प को दूसरे समयपर करनेके लिये नहीं छोडना चाहिये। महर्षि वसिष्ठ को आने मे विलम्ब होता देखकर निमि ने दूसरे विद्वान् ब्राह्मण को पुरोहित बनाया। ये पृरोहित थे भगवान् परशुराम के पिता महर्षि जमदग्नि । निमि ने उनके आचार्यत्व मे यज्ञ प्रारम्भ कर दिया ।
महर्षि वसिष्ठ इन्द्र का यज्ञ पूर्ण होनेपर लौटे तो महाराज निमिका यज्ञ चल रहा था । यह देखकर उन्हे लगा कि निमिने मेरी अवज्ञा की है । उन्होने शाप दे दिया – अपने को पण्डित मानकर मेरा तिरस्कार करनेवाले निमि का शरीर नष्ट हो जाय । निमिने भी शाप दिया – लोभवश धर्म को विस्मृत कर देनेवाले आपका भी देहपात हो जाय । भूल दोनों ओर से हुई थी और वह शाप के रूप में बढ़ गयी । महाराज निमि को प्रारम्भ में कह देना चाहिए था कि वे लम्बे समयतक प्रतीक्षा नहीं करना चाहते । महर्षि वसिष्ठने भी यह तथ्य ध्यान देनेयोग्य नही माना कि अपना आचार्य या पुरोहित किसी कारण अनुपलब्ध हो तो यजमान कर्म विशेषके लिये दूसरे ब्राह्मण को आचार्य वरण का सकता है ।
यह दूसरा ब्राह्मण केवल उस कर्मके पूर्ण होनेतक आचार्य रहता है । निमिका शरीरान्त हो गया । इसके बाद उनके शरीर का ऋषियोद्वारा मन्थन करनेसे एक बालक की उत्पत्ति हुई, जो ‘मिथि ‘ और ‘विदेह’ कहलाया । महर्षि वसिष्ठ ने आसन लगाया और योगधारणा के द्वारा अपने शरीर को भस्म कर दिया । थोड़े समय पश्चात् भगवान ब्रह्माके यज्ञमें उर्वशी को देखकर मित्र ( सूर्यं ) और वरुण का रेत: स्खलन हो गया । उन दोनो लोकपालो का सम्मिलित वीर्य यज्ञीय कलशपर पडा । उसका जो भाग कलशपर पडा था, उससे कुम्भज अगस्त्य उत्पन हुए और जो भाग नीचे गिरा, उससे वसिष्ठजी ने पुन: शरीर प्राप्त किया । इसलिये वसिष्ठजी को मैत्रावरुणि भी कहते है । दूसरा शरीर प्राप्त करके वसिष्ठजी ने पूरे सूर्यवंश का पौरोहित्य पद त्याग दिया । वे केवल इक्ष्वाकु वंश के पुरोहित बने रहे । अयोध्या के समीप ही उन्होने अपना आश्रम बना लिया ।
दूसरी मुख्य बात यह हुई कि नवीन देह की प्राप्ति के साथ महर्षि वसिष्ठ परम शान्त हो गये । किसी को भी क्रोध करके शाप नहीं देना चाहिये, यह उन्होऩे अपना व्रत बना लिया । महर्षि वसिष्ठ ब्रह्मा जी केे मानसपुत्र होने से- मित्र एवं वरुण के वंशोद्भव होने से भी दिव्य देह हैं । वसिष्ठ कल्पांतजीवी अमर है। इस मन्वन्तर में सप्तर्षियों में उनका स्थान है । महाराज गाधि के पुत्र विश्वामित्र जी भगवान् परशुराम के पिता जमदग्नि के मामा लगते है । महाराज गाधि की पुत्री सत्यवती का विवाह भृगुवंशीय महर्षि ऋचीक से हुआ था । सत्यवती विश्वामित्र जी को बहन थी ।
Shri Bhaktmal Shri Vashisht Ji
गौ सेवा की शक्ति :
एक बार क्षत्रिय राजा विश्वामित्र अपनी सारी सेना के साथ महर्षी वशिष्ठ जी के आश्रम से गुजरे। उनके साथ लाखो सैनिक थे। भूख प्यास से व्याकुल होने लगे । वशिष्ठ मुनि के पास शबला कामधेनु गौ थी । उस गौ ने सभी लोगों के लिये स्वादिष्ट भोजन उत्पन्न कर दिया, जिसे ग्रहणकर सेनासहित विश्वामित्र तृप्त हो गये और सोचने लगे महर्षि वसिष्ठ ने ऐसी सामर्थ्य कहाँसे प्राप्त कर ली । क्योंकि उनके पास धन नहीं दीखता । जब पता लगा कि यह सब शबला गाय का ही दिव्य विलक्षण प्रभाव है, तब उन्होंने शबला गौ को वसिष्ठ जी से माँगा और कहा कि मैं इसके बदले आपको पर्याप्त धन दूंगा पर वसिष्ठ मुनि तैयार नही हुए ।
तब राजा ने उस शबला गौ को जबर्दस्ती घसीटकर ले जाने के लिये अपने सिपाहियो को आज्ञा दी । वे लोग उसे घसीटने लगे । शबला ने उस समय रोकर महर्षि वसिष्ठ से कहा कि आपने मुझें इस राजा को क्यों दे दिया ? इसपर वसिष्ठ जी ने कहा- मैंने तुम्हें नही दिया, यह राजा बलवान है। बलपूर्वक तुम्हे ले जाना चाहता है । मेरी बात नही मानता और तुम्हें बलपूर्वक घसीटता है । इसपर शबला ने अपने शरीर से अनन्त संख्या में यवन, खस, पह्लव, हूण आदि सैनिकों को उत्पन्न किया, जिन्होंने राजा विश्वामित्र की सेना को नष्ट कर दिया ।
श्री वशिष्ठ जी की गोसेवा कैसी थी और गोमाता की शक्ति कितनी प्रबल होती है अथवा को सकती है उसकी कल्पना भी कठिन है । अत: अत्यन्त श्रद्धा भक्ति से गौओं की सेवा करनी चाहिये ।
क्षमा की मूर्ति वशिष्ठ जी :
विश्वामित्र समझ गए की ब्रह्मबल ही श्रेष्ठ है । क्षत्रिय की शक्ति तपस्वी ब्राह्मण का कुछ नहीं बिगाड़ सकती । अत: मैं इसी जन्म मे ब्राह्मणत्व प्राप्त करुंगा । विश्वामित्र अत्यन्त कठोर तप मे लग गये । सैकडों वर्ष के कठिन तप के पश्चात् प्रसन्न होकर ब्रह्माजी प्रकट हो गये । उन्होंने जब ब्रह्मा जी से अभीष्ट वर माँगा तब ब्रह्मा जी ने यह वरदान दिया – वसिष्ठ मुनि जीस दिन तुम्हे ब्रह्मर्षि कहकर पुकारे, उस दिन तुम ब्रह्मर्षि हो जाओगे । विश्वामित्र के लिये महर्षि वसिष्ठ से प्रार्थना करना बहुत अपमानजनक था । संयोगवश जब वसिष्ठजी मिलते थे तो इन्हे ‘राजर्षि’ कहते थे । अत: राजा विश्वामित्र वसिष्ठ जी के घोर शत्रु हो गये । एक राक्षस को प्रेरित करके उन्होने वसिष्ठ के जी के सौ पुत्र मरवा दिये । स्वयं वसिष्ट को अपमानित करने, नीचा दिखाने का अवसर ढूंढते रहने लगे ।
उनका हृदय हिंसा की प्रबल भावना से पूर्ण था । शस्त्र लेकर रात्रि मे छिपकर महर्षि वसिष्ठ को मारने निकले । दिन मे प्रत्यक्ष आक्रमण करके तो अनेक बार पराजित हो चुके ही थे । चमकीली रात्रि थी । कुटिया के बाहर पत्नी के साथ वशिष्ठ मुनि बैठे थे । अरुंधती जी ने कहा – आज आकाश मे कैसा अद्भुत तेज है । वसिष्ठ जी बोले – ऐसा ही निर्मल तेज़ आजकल विश्वामित्र जी के तप का है । बड़े तपस्वी महात्मा है विश्वामित्र जी । विश्वामित्र ने जैसे ही वशिष्ठ की बात सुनी तो उनका ही हृदय उन्हे धिक्कार उठा की एकान्त में पत्नी के साथ बैठा जो अपने सौं पुत्रो के हत्यारे की प्रशंसा करता है, उस महापुरूष को मारने आया है तू ? इस महापुरुष के चित्त में तो किसी के प्रति द्वेष है ही नहीं ।
शस्त्र त्याग दिए विश्वामित्र ने और दौडकर श्री वशिष्ठ जी चरणो में गिर पड़े । श्री वसिष्ठ ने उनको झुककर उठाते हुए कहा – उठिये ब्रह्मर्षि । जैसे ही ब्रह्मर्षि कहकर पुकारा वैसे ही विश्वामित्र का ह्रदय क्रोधरहित हो गया । ह्रदय मे भगवत्प्रेम प्रकट हो गया ।
Shri Bhaktmal Shri Vashisht Ji
सत्संग का प्रभाव :
एक बार वशिष्ठ जी और विश्वामित्र जी में बहस छिड़ गयी की सत्संग की महिमा बड़ी है या तप की महिमा । वशिष्ठ जी का कहना था सत्संग की महिमा बड़ी है, तथा विश्वामित्र जी का कहना था कि तप का महात्म्य बड़ा है । जब बहुत देर तक निश्चय न हो सका तो दोनों विष्णु भगवान के पास पहुंचे और अपनी अपनी बात कहने लगे । विष्णु भगवान ने सोचा की दोनों ही महर्षि है और दोनों ही अपनी-अपनी बात पर अड़े है । उन्होंने कहा कि शंकर भगवान ही इसका सही उत्तर दे सकते है अतः दोनों शंकर भगवान के पास पहुंचे । शंकर जी के सामने भी यही समस्या आई । उन्होंने कहा कि मेरे मस्तक पर इस समय जटाजूट का भार है अतः मैं सही निर्णय नहीं कर पाउँगा । आप लोग शेषनाग के पास जाय, वो ही सही फैसला कर सकेंगे ।
दोनों महर्षि शेषनाग के पास पहुंचे और अपनी बात उनसे कही । शेषनाग जी ने कहा – हे ऋषियो ! मेरे सिर पर धरती का भार है । आप थोड़ी देर के लिए मेरे सिर से धरती को हटा दे तो में फैसला कर दू । विश्वामित्र ने कहा कि धरती माता तुम शेषनाग जी के सर से थोड़ी देर के लिए अलग हो जाओ, मैं अपने तप का चौथाई फल आपको देता हूँ । पृथ्वी में कोई हलचल नहीं हुई , फिर उन्होंने कहा कि तप का आधा फल समर्पित करता हूँ । इतना कहने पर भी धरती हिली तक नहीं । अंत में उन्होंने कहा कि में अपने सम्पूर्ण जीवन के तप का फल तुम्हे देता हूँ । धरती थोड़ी हिली, हलचल हुई फिर स्थिर हो गयी । अब वशिष्ठ जी की बारी आई । उन्होंने कहा कि धरती माता अपने सत्संग का निमिषमात्र फल देता हूँ, तुम शेषनाग के मस्तक से हट जाओ ।
धरती हिली, गर्जन हुआ और वो सर से उतरकर अलग खड़ी हो गई । शेषनाग जी ने ऋषियों से कहा कि आप लोग स्वयं ही फेसला करले कि सत्संग बड़ा है या तप । सूर्यवंशीय रघु ,दिलीप, श्रीराम आदि राजाओ की जो प्रतिष्ठा हुई, उसमें महर्षि वसिष्ठ की धर्ममय नीति ही मूल कारण रही है । ये महान् परोपकारी थे । प्राणिमात्र के हित-चिन्तन को इन्होने अपना उद्देश्य बना रखा था । यूँ तो इनकी जीवनचर्या ही धर्मनीति का आदर्श रही है तथापि इन्होने मनुष्यों को अपने आचारधर्म का परिपालन करने के लिये उत्तम सीख दी है, उसके लिये वसिष्ठ धर्मशास्त्र नामक एक ग्रन्थ ही बना डाला ।
Shri Bhaktmal Shri Vashisht Ji
- Gaurav Krishna Goswami
- Mridul Krishna Goswami Maharaj
- Sri Ram Bhajan
- Hanuman Ji Bhajan
- Chitra Vichitra
Narayanpedia पर आपको सभी देवी देवताओ की नए पुराने प्रसिद्ध भजन और कथाओं के Lyrics मिलेंगे narayanpedia.com पर आप अपनी भाषा में Lyrics पढ़ सकते हो।