श्री भक्तमाल ६ – श्री तुलसीदास जी | Shri Bhaktmal Katha Part 6 | Shri Tulsidas ji

shri bhaktmal katha shri Tulsidas ji
shri bhaktmal katha shri Tulsidas ji

श्री भक्तमाल ६ – श्री तुलसीदास जी | shri bhaktmal katha shri Tulsidas ji

 

shri bhaktmal katha shri Tulsidas ji  – श्री मूल गोसाई चरित आदि के आधार पर लिखा हुआ –

जगत में आदि कवि हुए श्री वाल्मीकि जी और आदि काव्य हुआ उनके द्वारा रचित श्रीमद्रामण । पर उसका भी प्रसार संस्कृत भाषा में होने के कारण जब कुछ सीमित सा होने लगा तो भगवत् कृपा से गोस्वामी श्री तुलसीदास जी का प्राकट्य हुआ । जिन्होंने सरल, सरस हिन्दी भाषा में श्री रामचरित मानस की रचना की । उन दिनों मध्यकाल में भारत की परिस्थिति बडी विषम थी । विधर्मियों का बोल- बाला था । वेद, पुराण, शास्त्र आदि सद्ग्रंथ जलाये जा रहे थे । एक भी हिन्दू अवशेष न रहे, इसके लिये गुप्त एवं प्रकट रूप से चेष्टा की जा रही थी । घर्मप्रेमी निराश हो गये थे तभी भगवत्कृपा से श्रीरामानंद सम्प्रदाय में महाकवि का प्रादुर्भाव हुआ था ।

श्री गुरु परंपरा इस प्रकार है : 

१. जगद्गुरु श्री स्वामी रामानंदाचार्य  २. श्री स्वामी अनंतानंदाचार्य ३. श्री स्वामी नरहर्यानंद ४. श्री गोस्वामी तुलसीदास

गोस्वामी श्री तुलसीदासजी श्रीसीताराम जी के पदपद्म के प्रेमपराग का पान कर सर्वदा उन्मत्त रहते थे । दिन-रात श्रीरामनाम को रटते रहते थे । इस अपार संसार-सागर को पार करने के लिये आपने श्री रामचरितमानसरूप सुन्दर-सुगम नौका का निर्माण किया ।

जन्म ,बाल्यकाल और गुरुदेव भगवान् :

प्रयाग के पास चित्रकूट जिले में राजापुर नामक एक ग्राम है, वहाँ आत्माराम दूबे नाम के एक प्रतिष्ठित सरयूपारीण ब्राह्मण रहते थे । उनकी धर्मपत्नी का नाम हुलसी था । संवत् १५५४ की श्रावण शुक्ला सप्तमी के दिन अभुक्त मूल नक्षत्र में इन्हीं भाग्यवान दम्पति के यहाँ बारह महीने तक गर्भ में रहने के पश्चात् गोस्वामी तुलसीदास जी का जन्म हुआ । जन्म के दूसरे दिन इनकी माता असार संसार से चल बसीं । दासी चुनियाँ ने बड़े प्रेम से बालक का पालन-पोषण किया । जब बालक प्रकट हुआ तब उसके मुख में बत्तीस दांत थे और वह रूदन नहीं कर रहा था अपितु हस रहा था।

 

प्रकट होते ही उसने मुख से राम नाम का उच्चारण किया अतः बालक का नाम पड गया रामबोला । दासी चुनिया समझ गयी थी की यह कोई साधारण बालक नहीं है । संसार के लोग इस बालक को अमंगलकारी कहने लगे । संसार के लोग बालक हो हानि ना पहुंचाए इस कारण से दासी चुनिया बालक का अलग जगह पालन पोषण करती रही परंतु जब तुलसीदास लगभग साढ़े पाँच वर्ष के हुए तब चुनियाँ का भी देहांत हो गया । अब तो बालक अनाथ सा हो गया ।वह द्वार- द्वार भटकने लगा । माता पार्वती को उस होनहार बालक पर दया आयी। एक ब्राह्मणी का वेष धारण कर माता पार्वती प्रतिदिन गोस्वामी जी के पास आतीं और इन्हें अपने हाथों से भोजन करा आती थीं।

इधर भगवान शंकर जी की प्रेरणा से रामशैल पर रहने वाले श्रीअनन्तानन्दजी के प्रिय शिष्य श्रीनरहर्यानन्दजी ने इस बालक को ढूंढ निकाला और उसका नाम रामबोला रखा । शंकर जी ने उनसे कहा था की यह बालक विश्व के कल्याण हेतु प्रकट हुआ है ।उसे वे अयोध्या ले गए और वहाँ संवत् १५३१ माघ शुक्ला पंचमी शुक्रवार को उसका यज्ञोपवीत संस्कार कराया । बिना सिखाए ही बालक रामबोला ने गायत्री-मंत्र का उच्चारण किया । इसके बाद नरहरि स्वामी ने वैष्णवों के पाँच संस्कार करके रामबोला को राममन्त्र की दीक्षा दी और अयोध्या में ही रहकर विद्याध्ययन कराने लगे । वहाँ से कुछ दिन बाद गुरु-शिष्य दोनों शूकरक्षेत्र (सोरों) पहुँचे । वहाँ श्रीनरहरि जी ने तुलसीदासजी को श्रीरामचरित सुनाया : मैं पुनि निज गुर सन सुनी कथा सों सूकरखेत।

बार बार गुरुदेव बालक को रामचरित सुनाते गए परंतु वह भूल जाता था । गुरुदेव राम चरित सुनाते और पूछते – समझ आया ? बालक कहता – नहीं । जब बालक लगभग १२ वर्ष का हो गया तब गुरुदेव ने उसे काशी के भक्त और विद्वान् शेष सनातन जी के पास भेज और कहा की यह बालक थोडा कम समझता है ,आपको इसे पढ़ाने में थोड़ी अधिक मेहनत करनी पड़ेगी । परंतु हुआ उसके विपरीत , बालक रामबोला ने शीघ्र ही वेड शास्त्रो का अध्ययन कर लिया ।

शेषसनातन जी तुलसीदास की योग्यतापर रीझ गये । उन्होंने बालक रामबोला को पंद्रह वर्षतक अपने पास रखा और वेद वेदांग का सम्पूर्ण अध्ययन कराया । शेषसनातन जी ने नरहर्यानंद जी से कहा की बालक तो तीक्ष्ण बुद्धि वाला है फिर आपने ऐसा क्यों कहा की यह बालक कम समझता है । नरहर्यानंद जी आश्चर्य में पड गए । सत्य बात तो यह थी की बालक तुलसीदास के मन में राम कथा सुनने की प्रबल लालसा थी ,गुरुमुख से जितनी कथा सुनी जाए उन्हें कम ही जान पड़ता । तुलसीदास ने विद्याध्ययन तो कर लिया, परंतु ऐसा जान पडता है कि उन दिनों भजन कुछ शिथिल पड गया । उनके हदय मे लौकिक वासनाएँ जाग उठी और अपनी जन्मभूमि का स्मरण हो आया । अपने विद्या गुरु की अनुमति लेकर वे राजापुर पहुंचे ।

राजापुर में अब उनके घर का ढूहामात्र अवशेष था । पता लगनेपर गाँव के भाट ने बताया – एक बार हरिपुर से आकर एक नाई ने आत्माराम जी (तुलसीदास जी के पिता ) से कहा की आपका बालक अमंगलकारी नहीं अपितु महान् भक्त है ।उसकी दुर्दशा न होने दो , अपने बालक को ले आओ परंतु आत्माराम जी ने अस्वीकार कर दिया । तभी एक सिद्ध ने शाप दे दिया कि तुमने भक्त का अपमान किया है, छ: महीने के भीतर तुम्हारा और दस वर्ष के भीतर तुम्हारे वंश का नाश हो जाय । वैसा ही हुआ । इसलिये अब तुम्हारे वंश में कोई नहीं है । उसके बाद तुलसीदास जी ने विधिपूर्वक पिण्डदान एवं श्राद्ध किया । गांव के लोगो ने आग्रह करके मकान बनवा दिया और वहींपर रहकर तुलसीदास जी लोगो को भगवान् राम की कथा सुनाने लगे ।

 

shri bhaktmal katha shri Tulasidas ji
shri bhaktmal katha shri Tulsidas ji

 

श्री तुलसीदास जी का विवाह :

कार्तिक की द्वितीया के दिन भारद्वाज गोत्र का एक ब्राह्मण वहाँ सकुटुम्ब यमुना स्नान करने आया था । कथा बांचने के समय उसने तुलसीदास जी को देखा और मन-ही-मन मुग्ध होकर कुछ दूसरा ही संकल्प करने लगा । उसको अपनी कन्या का विवाह गोस्वामी जी के साथ ही करवाना था । गाँव के लोगो से गोस्वामी जी की जाति- पाँति पूछ ली और अपने घर लौट गया ।

वह वैशाख महीने में दूसरी बार आया । तुलसीदास जी से उसने बडा आग्रह किया कि आप मेरी कन्या स्वीकार करें । पहले तो तुलसीदासजी ने स्पष्ट नही कर दी, परंतु जब उसने अनशन का दिया, धरना देकर बैठ गया, तब उन्होने स्वीकार कर लिया । संवत १५८३ ज्येष्ठ शुक्ला १३ गुरूवार की आधी रात को विवाह संपन्न हुआ । अपनी नवविवाहिता वधू को लेकर तुलसीदासजी अपने ग्राम राजपुर आ गये ।

पत्नी से वैराग्य की शिक्षा :

एक बार जब उसने अपने पीहर जाने की इच्छा प्रकट की तो उन्होंने अनुमति नहीं दी । वर्षो बीतनेपर एक दिन वह अपने भाई के साथ मायके चली गयी । जब तुलसीदास जी बाहर से आये और उन्हें ज्ञात हुआ कि मेरी पत्नी मायके चली गयी, तो वे भी चल पडे । रात का समय था, किसी प्रकार नदी पार करके जब ये ससुराल मे पहुंचे तब सब लोग किवाड़ बंद करके सो गथे थे । तुलसीदास जी ने आवाज दी, उनकी पत्नी ने आवाज पहचानकर किवाड़ खोल दिये । उसने कहा की प्रेम में तुम इतने अंधे हो गये थे किं अंधेरी रात को भी सुधि नहीं रही, धन्य हो ! तुम्हारा मेरे इस हाड मांस के शरीर से जितना मोह हैं, उसका आधा भी यदि भगवान् से होता तो इस भयंकर संसार से तुम्हारी मुक्ति हो जाती –

हाड मांस को देह मम, तापर जितनी प्रीति ।
तिमु आधी जो राम प्रति, अवसि मिटिहि भव भीति ।।

फिर क्या था, वे एक क्षण भी न रुके, वहाँ से चल पडे । उन्हें अपने गुरु के वचन याद हो आये, वे मन-ही-मन उसका जप करने लगे –

नरहरि कंचन कामिनी, रहिये इनते दूर ।
जो चाहिय कल्याण निज, राम दरस भरपूर ।।

जब उनकी पत्नी के भाई को मालूम हुआ तब वह उनके पीछे दौडा, परंतु बहुत मनानेपर भी वे लौटे नहीं, फिर वह घर लौट आया । तुलसीदास जी ससुराल से चलकर प्रयाग आये । वहाँ गृहस्थ वेष छोडकर साधु-वेष धारण किया । फिर अयोध्यापुरी, रामेश्वर, द्वारका, बदरीनारायण , मानसरोवर आदि स्थानों में तीर्थाटन करते हुए काशी पहुंचे । मानसरोवर के पास उन्हें अनेक संतो के दर्शन हुए, काकभुशुण्डिजी से मिले और कैंलास की प्रदक्षिणा भी की । इस प्रकार अपनी ससुराल से चलकर तीर्थ-यात्रा करते हुए काशी पहुँच ने मे उन्हें पर्याप्त समय लग गया ।

श्री हनुमान जी से भेट और श्री रामलक्ष्मण दर्शन :

गोस्वामी जी काशी मे प्रह्लाद घाटपर प्रतिदिन वाल्मीकीय रामायण की कथा सुनने जाया करतेे थे । वहाँ एक विचित्र घटना घटी । तुलसीदास जी प्रतिदिन शौच होने जंगल में जाते, लौटते समय जो अवशेष जल होता, उसे एक पीपल के वृक्ष के नीचे गिरा देते । उस पीपल पर एक प्रेत रहता था । उस जलसे प्रेत की प्यास मिट जाती । जब प्रेत को मालूम हुआ कि ये महात्मा हैं, तब एक दिन प्रत्यक्ष होकर उसने कहा कि तुम्हारी जो इच्छा हो कहो, मैं पूर्ण करूँगा

तुलसीदास जी ने कहा कि मै भगवान् श्रीराम का दर्शन करना चाहता हूं । प्रेत ने कुछ सोचकर कहा कि भगवान् के दर्शन कराने का सामर्थ्य मुझ में नहीं है परंतु कथा सुनने के लिये प्रतिदिन प्राय: कोढ़ी के वेष में श्री हनुमान जी आते हैं । वे सबसे पहले आते हैं और सबसे पीछे जाते हैं । समय देखकर उनके चरण पकड़ लेना और हठ करके भगवान् का दर्शन कराने को कहना । तुलसीदासजी ने वैसा ही किया । श्रीहनुमान जी ने कहा कि तुम्हें चित्रकूट में भगवान् के दर्शन होंगे । तुलसीदास जी ने चित्रकूट की यात्रा की ।

चित्रकूट पहुंचकर वे मन्दाकिनी नदी के तटपर रामघाटपर ठहर गये । ये प्रतिदिन मन्दाकीनी में स्नान करते, मंदिर मे भगवान् केे दर्शन करते, रामायण का पाठ करते और निरं तर भगवान् के नाम का जप करते । एक दिन वे प्रदक्षिणा करने गये । मार्ग में उन्हें अनूरूप भूप – शिरोमणि भगवान् राम के दर्शन हुए । उन्होंने देख कि दो बडे ही सुंदर राजकुमार दो घोडोपर सवार होकर हाथ मे धनुष-बाण लिये शिकार खेलने जा रहे हैं । उन्हें देखकर तुलसीदास जी मुग्ध हो गये । परंतु ये कौन हैं यह नहीं जान सके । पीछे से श्रीहनुमान जी ने प्रकट होकर सारा भेद बताया ।

वे पश्चाताप करने लगे, उनका हृदय उत्सुकता से भर गया । श्रीहनुमान जी ने उन्हें धैर्य दिया कि प्रातःकाल फिर दर्शन होंगे । तब कहीं जाकर तुलसीदास जी को संतोष हुआ । संवत् १६०७ मौनी अमावास्या, बुधवार की बात है । प्रात:काल गोस्वामी तुलसीदास जी पूजा के लिये चन्दन घिस रहे थे । तब श्रीराम और लक्ष्मण ने आकर उनसे तिलक लगाने को कहा । श्रीहनुमान् जी ने सोचा कि शायद इस बार भी तुलसीदास न पहचानें, इसलिये उन्होने तोते का वेष धारण करके चेतावनी का दोहा पढा –

चित्रकूटके घाट पर भइ संतन की भीर ।
तुलसिदास चंदन घिसें तिलक देन रघुबीर ।।

इस दोहे को सुनकर तुलसीदास अतृप्त नेत्रो से आत्माराम की मनमोहिनी छबिसुधा का पान करने लगे । देह की सुध भूल गयी, आँखों से आंसूओ की धार बह चली । अब चन्दन कौन घिसे ! भगवान् श्रीराम ने पुन: कहा कि बाबा ! मुझे चन्दन दो ! परंतु सुनता कौन ? वे बेसुध पड़े थे । भगवान् ने अपने हाथ से चंदन लेकर अपने एवं तुलसीदास के ललाट में तिलक किया और अंतर्धान हो गये । तुलसीदास जी जल-विहीन मछली की भाँति विरह-वेदना में तड़पने लगे । सारा दिन बीत गया, उन्हें पता नहीं चला । रात मे अस्कर श्रीहनुमान जी ने जगाया और उनकी दशा सुधार दी । उन दिनों तुलसीदास जी की बडी ख्याति हो गयी थी । उनके द्वारा कई चमत्कार की घटनाएँ भी घट गयीं, जिनसे उनकी प्रतिष्ठा बढ गयी और बहुत से लोग उनके दर्शन को आने लगे ।

shri bhaktmal katha shri Tulsidas ji</p>

श्री सूरदास जी से भेट और भगवान् का विनोद करना :

संवत् १६१६ मे जब श्री तुलसीदास जी कामदगिरि पर्वत के पास निवास कर रहे थे, तब श्रीगोकुलनाथ जी की प्रेरणा से श्रीसूरदास जी उनके पास आये । उन्होने अपना सूरसागर ग्रंथ दिखाया और दो पद गाकार सुनाये, तुलसीदास जी ने पुस्तक उठाकर हृदय से लगा ली और भगवान् श्री कृष्ण की बडी महिमा गायी । सूरदास जी अनन्य कृष्ण भक्त थे और तुलसीदास जी अनन्य राम भक्त । दोनों अपने अपने प्रभु के गुणगान खूब करते थे । दोनों एक से बढ़ कर एक पद सुना रहे थे अपने प्रभु के । भगवान् के सभी नामो का एक सा माहात्म्य है परंतु कभी कभी संत और भगवान् के बिच में विनोद हो जाता है । दोनों संत अपने अपने प्रभु के नाम का महात्यम बताने लगे । निश्चय करने के लिए एक तराजू लाया गया । तुलसीदास जी ने अपने प्रभु का स्मरण किया और विराजने के लिए विनती की और सूरदास जी ने अपने प्रभु का स्मरण किया और दूसरे पलड़े पर विराजमान होने को कहा ।दोनों के इष्ट गुप्त रूप में विराजमान हो हाय ।

तुलसीदास जी वाला पलड़ा भारी हो गया । अब सूरदास श्री को बड़ा दुःख हुआ । वे कहने लगे की बेकार में ही श्री कृष्ण के चक्कर में पड़ गए । इसने तो हमारी नाक कटवा दी अब तो हम इसका भजन नहीं करेंगे । सूरदास जी ने पद गाना छोड़ दिया तो श्रीनाथ जी से रहा नहीं गया । प्रभु श्रीनाथ जी सूरदास जी के सामने आये और उन्हें मानाने लगे । सुरदास जी ने कहा की आपके नाम का पलड़ा तो हल्का पड गया , मेरी नाक कट गयी ।श्री नाथ जी मुस्कुराए और बोले – बाबा ! आप जपते हो कृष्ण कृष्ण और पलड़े पर आपने आवहान किया मेरे अकेले श्री कृष्ण का । तुलसीदास जी जपते है सीताराम और उन्होंने ने पलड़े पर आवाहन किया युगल जोड़ी सीताराम जी का ।

अब अकेले श्री कृष्ण का वजन एक ओर और सीता राम जी दोनों का वजन एक ओर । किशोरी जी जहां हो वहाँ का पलड़ा तो भारी होगा ही ,मेरे अकेले का वजन तो युगल जोड़ी से कम ही होगा न । भगवान् के सभी नाम एक समान ही है । सूरदास जी समझ गए की यह तो केवल हास्य लीला है । दोनों संत गले मिले ,सूरदास जी का हाथ पकडकर गोस्वामी जी ने उन्हें संतुष्ट किया और श्री गोकुलनाथ जी को एक पत्र लिख दिया । सात दिन सत्संग करके सूरदास जी लौट गये ।

श्री मीराबाई का पत्र :

उन्हीं दिनों मेवाड़ से मीराबाई का पत्र लेकर सुखपाल नामक एक ब्राह्मण आया था ।मीराबाई का प्राकट्य उस दौर में हुआ था जब राजपूतों की स्त्रियां उघडा सिर नृत्य करना तो दूर , सूरज की किरणे भी उन्हें नहीं स्पर्श कर पाती थी । राजपूतों की स्त्रियो को बहुत मर्यादा और भारी नियम कानून के साथ रहना पड़ता था परंतु भक्ति की उन्मत्त अवस्था में मान मर्यादा का होश रहता ही कहा है ? कृष्ण भक्तो के संग मीरा कृष्ण मंदिर में नृत्य करती रहती ।

उसके परिवार को यह सब पसंद नहीं तथा ।मीरा महल से बाहर न जाए इसलिए राजा ने महल के भीतर ही कृष्णमंदिर बनवा दिया था परंतु वहाँ भी साधु संत मीरा का नृत्य देखने पहुँच जाते । मीरा के देवर जी को यह सब बिलकुल पसंद नहीं आता था ।कृष्णभक्ति में नाचना और गाना राज परिवार को भी अच्छा नहीं लगा। उन्होंने कई बार मीराबाई को विष देकर मारने की कोशिश की। घर वालों के इस प्रकार के व्यवहार से परेशान होकर मीरा जी द्वारका और वृंदावन गईं। वह जहाँ जाती थीं, वहाँ लोगों का सम्मान मिलता था। लोग आपको देवियों के जैसा प्यार और सम्मान देते थे। इसी दौरान उन्होंने तुलसीदास को पत्र लिखा था :-

shri bhaktmal katha shri Tulsidas ji</p>

स्वस्ति श्रीतुलसी गुण भूषण ,दूषण हरण गुसाई ।
बारहि बार प्रणाम करहुँ , हरे शोक समुदाई ।।
घरके स्वजन हमारे जेते , सबहि उपाधि बढ़ाई ।
साधु संग अरु भजन करत मोंहि देत कलेस महाई ।।
बालपने ते मीरा कीन्ही गिरिधर लाल मिताई ।
सो तो अब छूटै नहिं क्यों हूँ लगी लगन बरियाई ।।
मेरे मात पिता सम हौ हरि भक्तन समुदाई ।
हम कूँ कहा उचित करिबो है सो लिखिए समुझाई ।।

मीराबाई के पत्र का जबाव तुलसी दास ने इस प्रकार दिया:-

जाके प्रिय न राम बैदेही ।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जदपि प्रेम सनेही ।।
तज्यो पिता प्रहलाद, विभीषण बंधु , भरत महतारी ।
बलि गुरु तज्यो कंत ब्रज-बनित्नहिं , भए मुद-मंगलकारी।।
नाते नेह रामके मनियत सुह्र्द सुसेब्य जहां लौं ।
अंजन कहा आंखि जेहि फूटै ,बहुतक कहौं कहाँ लौं ।।
तुलसी सो सब भांति परम हित पूज्य प्रानते प्यारे ।
जासों होय सनेह राम –पद , एतो मतो हमारो ।

श्री रामचरितमानस की रचना :

तत्पश्चात् गोस्वामी जी काशी पहुंचे और वहां प्रह्लाद घाटपर एक ब्रह्मण के घर निवास किया । वहां उनकी कवित्व शक्ति स्फुरित हो गयी और वह संस्कृत में रचना करने लगे । यह एक अद्भुत बात थी कि दिन मे वे जितनी कविता रचना करते रात मे सब की सब लुप्त हो जाती । यह घटना रोज घटती परंतु वे समझ नही पाते थे कि मुझको क्या करना चाहिये । आठवें दिन तुलसीदास जी को स्वप्न हुआ । भगवान् शंकर ने प्रकट होकर कहा कि तुम अपनी भाषा मे काव्य रचना करो , संस्कृत में नहीं ।

नींद उचट गयी तुलसीदास जी उठकर बैठ गये ।उनके हृदय मे स्वप्न की आवाज गूंजने लगी । उसी समय भगवान् श्री शंकर और माता पार्वती दोनों ही उनके सामने प्रकट हुए । तुल्सीदास जी ने साष्टांग् प्रणाम किया । शिव जी ने कहा कि – मातृभाषा में काव्य निर्माण करो , संस्कृत के पचडे में मत पडो । जिससे सबका कल्याण हो वही करना चाहिये । बिना सोचे विचारे अनुकरण करने की आवश्यकता नहीं है । तुम जाकर अयोध्या में रहो और वही काव्य रचना करो । जहां भगवान् की जन्म स्थली है और जो भगवान् श्रीसीताराम जी का नित्य धाम है वही उनकी कथा की रचना करना उचित होगा । मेरे आशीर्वाद से तुम्हारी कविता सामवेद के समान सफल होगी ।

इतना कहकर गौरीशंकर जी अन्तर्धान हो गये और उनकी कृपा एवं अपने सौभाग्य की प्रशंसा करते हुए तुलसीदास जी अयोध्या पहुंचे। तुलसीदास जी वही रहने लगे । एक समय दूध पीते थे । भगवान् का भरोसा था । संसार की चिंता उनका स्पर्श नहीं कर पाती थी । कुछ दिन यों ही बीते । संवत् १६३१ आ गया । उस वर्ष चैत्र शुक्ल रामनवमी के दिन प्राय: वैसा ही योग जुट गया था, जैसा त्रेतायुग मे रामजन्म के दिन था । उस दिन परतः काल तुलसीदास जी सोचने लगे – क्या इस समय भगवान् का अवतार होने वाला है ? आश्चर्य है , अभी इस समय अवतार कैसे हो सकता है ?

उसी समय श्री हनुमान जी ने प्रकट होकर तुलसीदास जी को दर्शन दिया । तुलसीदास जी ने प्रणाम् करके पूछा – क्या पृथ्वी पर इस समय भगवान् का अवतार होने वाला है ? हनुमान जी बोले – अवतार तो होगा परंतु मनुष्य शरीर के रूप में नहीं अपितु ग्रन्थ के रूप में । इसके बाद हनुमान जी ने गोस्वामी जी का अभिषेक किया । शिव, पार्वती, गणेश, सरस्वती ,नारद और शेषने आशीर्वाद दिये और सबकी कृपा एवं आज्ञा प्राप्त करके श्रीतुलसीदास जी ने श्रीरामचरित मानस की रचना प्रारम्भ की । दो वर्ष सात महीने छब्बीस दिन मे श्रीरामचरित मानस की रचना समाप्त हुई । संवत् १६३३ मार्गशीर्ष मास के शुक्लपक्ष में रामविवाह के दिन सातों काण्ड पूर्ण हो गये ।

यह कथा पाखंडियो छल-प्रपञ्च को मिटानेवाली है । पवित्र सात्त्विकधर्म का प्रचार करनेवाली है । कलिकाल के पाप-कलापका नाश करनेवाली है । भगवत् प्रेम की छटा छिटकानेवाली है । संतो के चित्त में भगवत्प्रेम की लहर पैदा करनेवाली है । भगवत् प्रेम श्रीशिवजी की कृपा के अधीन है, यह रहस्य बतानेवाली है । इस दिव्य ग्रन्थ की समाप्ति हुई, उसी दिन इसपर लिखा गया कि – शूभमिति हरि: ओम् तत्सत् । देवताओंने जय-जयकार की ध्वनि की और फूल बरसाये । श्री तुलसीदास जी को वरदान दिये, रामायण की प्रशंसा की ।

shri bhaktmal katha shri Tulsidas ji</p>

श्री गणेश जी का गोस्वामी जी के पास आकर मानस की कुछ प्रतियां अपने लोक को ले जाना :

श्री रामचरितमानस की रचना के बाद श्री गणेश जी वहाँ आ गए और अपनी दिव्या दिव्य लेखनी से मानस जी की कुछ प्रतियां क्षण भर में लिख ली । उन प्रतियोगिता को लिखकर गोस्वामी जी से कहा की इस सुंदर मधुर काव्य का रसपान हम अपने लोक में करेंगे और अन्य गणो को भी कराएँगे । ऐसा कहकर गणेश जी अपने लोक को चले गए । श्री रामचरितमानस क्या है, इस बात को सभी अपने-अपने भाव के अनुसार समझते एवं ग्रहण करते हैं । परंतु अब भी उसकी वास्तविक महिमा का स्पर्श विरले ही पुरुष का सके होंगे ।

श्री रामचरितमानस के प्रथम श्रोता संत :

मनुष्यों में सबसे प्रथम यह ग्रन्थ सुनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ मिथिला के परम संत श्रीरूपारुण स्वामीजी महाराज को । वे निरंतर विदेह जनक के भाव में ही मग्न रहते थे और श्रीरामजी को अपना जामाता समझकर प्रेम करते थे । गोस्वामी जी ने उन्ही को सबसे अच्छा अधिकारी समझा और श्री रामचरितमानस सुनाया । उसके बाद बहुतो ने रामायण की कथा सुनी । उन्ही दिनों भगवान् की आज्ञा हुई कि तुम काशी जाओ और श्रीसुलसीदास जी ने वहां से प्रस्थान किया तथा वे काशी आकर रहने लगे ।

गोस्वामी जी ने काशी आकर भगवान् विश्वनाथ और माता अन्नपूर्णा को श्री रामचरितमानस सुनाया । काशी में ब्राह्मणों और विद्वानों ने इस ग्रन्थ का बहुत विरोध किया । वे कहने लगे की कैसे इस बात का पता लगेगा की रामचरितमानस में लिखी बातें शास्त्रीय है या नहीं , इसका प्रमाण कुछ है ही नहीं । निश्चय हुआ की ग्रन्थ को विश्वनाथ जी के मंदिर में रात भर रखा जाए और शंकर को स्वयं प्रातः निश्चय करने दिया जाए । समस्त सहस्त्र और वेदों के निचे मानस जी को रखा गया । सबेरे जब पट खोला गया तो रामचरितमानस सबसे ऊपर थी और उसपर लिखा हुआ पाया गया सत्यम शिवम् सुन्दरम् और नीचे भगवान् श्री शंकर की सही थी ।

इसका अर्थ है की इसमें जो लिखा है वह सब सत्य है ,शिव है और जीवन को सुंदर बनाने वाला है । उस समय उपस्थित लोगो ने सत्यं शिवं सुंदरम् की आवाज भी कानों से सुनी । मानस के प्रचार से काशी के संस्कृत -पण्डितों के मन में बडी चिंता हुई । उन्होंने सोचा हमारा तो सब मान-माहात्म्य ही खों जायगा । वे दल बांधकर तुलसीदास जी की निन्दा करने लगे और उनकी पुस्तक को ही नष्ट कर देने का षड्यंत्र रचने लगे ।

shri bhaktmal katha shri Tulsidas ji</p>

श्री राम लक्षमण का गोस्वामी जी की कुटिया के बहार पहरा देना :

पुस्तक चुराने के लिये दो चोर भेजे गये । उन्होने जाकर देखा कि तुलसीदास जी की कुटीके आसपास दो वीर हाथ मे धनुष बाण लेकर पहरा दे रहे हैं । वे बड़े ही सून्दर श्याम और गौर वर्ण के थे । उनकी सावधानी देखकर चोर बडे प्रभावित हुए और उनके दर्शन से उनकी बुद्धि शुद्ध हो गयी । उन्होने श्रीतुलसीदास जी के पास जाकर सब वृत्तान्त कहा और पूछा कि आपके ये सुंदर वीर पहरेदार कौन हैं ? तुलसीदास जी समझ गए की प्रभु श्री राम लक्ष्मण ही है । तुलसीदास जी के नेत्रों से अश्रुओं की धारा बह चली, वाणी गद्गद हो गयी । अपने प्रभुके कृपा समुद्र में वे डूबने – उतराने लगे । उन्होने अपने को संभालकर कहा कि तुमलोग बडे भाग्यवान हो, घन्य हो किं तुम्हें भगवान् के दर्शन प्राप्त हुए । उन चोरो ने अपना रोजगार छोड दिया और वे भजन में लग गये ।

तुलसीदास जी ने कुटी की सब वस्तुएँ लुटा दीं, मूल पुस्तक यत्न के साथ अपने मित्र टोडरमल (अकबर के नवरत्नों में से एक )के घर रख दीं। श्री तुलसीदास जी ने एक दूसरी प्रति लिखी उसी के आधारपर पुस्तको की प्रतिलिपियां तैयार होने लगीं । दिन दूना रात चौगुना प्रचार होने लगा । पण्डितों का दुख बढने लगा । उन्होंने काशी के प्रसिद्ध तांत्रिक वटेश्वर मिश्र से प्रार्थना क्री कि हमलोगों को बडी पीडा हो रही है, किसी प्रकार तुलसीदासजी का अनिष्ट होना चाहिये । उन्होंने मारण -प्रयोग किया और प्रेरणा करके भैरव को भेजा । भैरव तुलसी दास के आश्रमपर गये, वहां हनुमान जी तुलसीदास जी की रक्षा करते देखकर वे भयभीत होकर लौट आये, मारण का प्रयोग करनेवाले वटेश्वर मिश्र के प्राणोंपर ही आ बीती । परंतु अब भी पण्डितों का समाधान नहीं हुआ ।

मधुसूदन सरस्वती द्वारा श्री रामचरितमानस की प्रशंसा :

उन्होने श्रीमधुसूदन सरस्वती नामक महापण्डित के पास जाकर कहा कि भगवान् शिव ने उनकी पुस्तकपर सही तो कर दी है, परंतु यह किस श्रेणी की पुस्तक है, यह बात नहीं बतलायी है । मधुसूदन सरस्वती ‘अद्वैत सम्प्रदाय’ के प्रधान आचार्य थे । पंडितो ने कहा -अब आप उसे देखिये और बतलाइये कि वह किसके समकक्ष है । श्रीमधुसूदन सरस्वती जी ने रामायणकी पुस्तक मंगायी । उसका आद्योपान्त अवलोकर किया और उन्हे बडा आनन्द हुआ । उन्होने उस पुस्तकपर सम्मति लिख दी –

shri bhaktmal katha shri Tulsidas ji</p>

आनन्दकानने ह्यस्मिन् जङ्गमस्तुलसीतरुः।
कवितामञ्जरी भाति रामभ्रमरभूषिता॥

अर्थात् इस आनन्दवन काशीमें तुलसीदासजी चलते-फिरते तुलसीवृक्षके समान हैं। इनकी कविता मञ्जरीके समान है, जो सदैव श्रीरामरूप भ्रमरसे सुशोभित रहती है अर्थात् तुलसीदासजीकी कवितामञ्जरीपर श्रीरामजी भ्रमरकी भाँति मंडराते रहते हैं। तुलसीदास जी की कविता कभी श्री रामजी से पृथक् होती ही नहीं। टोडरमलने गोस्वामी तुलसीदास जी को रहनेके लिये अस्सीघाटपर स्थान और एक मन्दिर बनवा दिया । श्रीगोस्वामी जी वहां रहने लगे ।

विप्रचंद ब्राह्मण पर कृपा :

एक बार एक विप्रचंद नामक ब्राह्मण से हत्या हो गयी और उस हत्या के प्रायश्चित के लिये वह अनेक तीर्थों में घूमता हुआ काशी आया । वह मुख से पुकारकर कहता था -राम राम ! मै हत्यारा हूँ, मुझे भिक्षा दीजिये । श्री गोस्वामी जी ने उसके मुख से अपने इष्टदेव का अतिसुंदर राम नाम सुनकर उसे अपने निवास-स्थान पर बुला लिया और उसे हृदय से लगा लिया । गोस्वामी जी ने बड़ी प्रसन्नता से कहा –

तुलसी जाके बदन ते , धोखेहु निकसत राम ।
ताके पग की पगतरी , मेरे तन को चाम ।।
(वैराग्य संदीपनी )

फिर उसे अपनी पंक्ति में बैठकर प्रसाद पवाया, जिससे वह शुद्ध हो गया । काशी के ब्राह्मणों ने जब यह बात सुनी तो उन्होंने एक सभा की और उसमे गोस्वामी जी को बुलवाया । सभी पंडितो ने गोस्वामी जी से पूछा कि प्रायश्चित पूरा हुए बिना ये ब्राह्मण कैसे शुद्ध हो गया ? गोस्वामी जी ने कहा की वेदों पुराणों में भगवान् के नाम की महिमा लिखी है, उसे पढ़कर देख लीजिये , भगवन्नाम के प्रताप से ही यह ब्राह्मण भी शुद्ध हो गया । उन्होंने गोस्वामी जी से कहा की महिमा लिखी तो है परंतु हमें विश्वास नहीं होता । गोस्वामी जी ने पूछा कि फिर आपको कैसे होगा वह उपाय कहिये ? इसपर ब्राह्मणों ने कहा कि यदि इस व्यक्ति के हाथ से भगवान शंकर के नंदी जी प्रसाद खा लें तो हमलोग इसे अपनी जाति – पंगति में ले।लेंगे अथवा नहीं । सब लोग काशी में ज्ञानवापी नदी के तट पर पहुंचे जहां शर्त रखी गयी थी । श्री गोस्वामी जी ने नन्दीश्वर से कहा – हे नंदीश्वर ! यदि यह ब्राह्मण राम-नाम के प्रताप से शुद्ध हो गया है तो आप इसके हाथ से प्रसाद स्वीकार करके नाम की महिमा को प्रमाणित कीजिये । नन्दीश्वर ने प्रसन्नता के साथ प्रसाद स्वीकार कर लिया । इस चमत्कार को देखकर सभी श्री रामचंद्र जी की एवं रामनाम की जय-जयकार करने लगे और श्रीतुलसीदास जी की नामनिष्ठा पर बलिहार हो गए ।

 

shri bhaktmal katha shri Tulasidas ji
shri bhaktmal katha shri Tulsidas ji

 

साक्षात् भगवान् श्रीराम के दर्शन करने का उपाय :

वह ब्राह्मण दिनभर गोस्वामी जी के कुटिया के बहार बैठकर लोभवश राम-राम रटता । संध्या के समय श्रीहनुमान जी उसे धन दे देते थे । एक उसने भगवान के दर्शन के लिये बडा हठ किया । गोस्वामी जी ने कहा – उसके लिए प्रेम और भाव चाहिए ,संत की कृपा चाहिए । ऐसे ही एकदम भगवान् नहीं मिलते । उसने कहा – आप समर्थ महापुरुष है , आप भगवान् के दर्शन करवा सकते है । वह हठ पर अड़ गया । गोस्वामी जी ने कहा – ठीक है यहाँ सामने इस पेड़ पर चढ़ जाओ, पेड़ के निचे त्रिशूल गाढ़ दो और उस त्रिशूलपर कूद पडो । भगवान् के दर्शनं हो जायेंगे । वह त्रिशूल गाडकर वृक्षपर चढा, परंतु कूदने की हिम्मत नहीं पडी । एक घुडसवार उधर से जा रहा था, उसने पूछा की पेड़ पर क्या कर रहे हो ? ब्राह्मण बोला – तुलसीदास जी ने कहा है पेड़ पर से त्रिशूल पर कूदो तुम्हे भगवान् श्रीराम के दर्शन होंगे । उस व्यक्ति ने कहा – क्या सच में यह बात तुलसीदास जी के श्रीमुख से निकली है ? ब्राह्मण बोला – जी हाँ । वह व्यक्ति तुरंत पेडपर चढकर त्रिशूलपर कूद पडा । उसे भगवान् ने आकर हाथ से पकड़ लिया और उसे श्रीराम के दर्शन प्राप्त हो गये । हनुमान जी ने उसे तत्त्वज्ञान का उपदेश किया ।

एक मृत ब्राह्मण को जीवन प्रदान करना :

भक्तमाल में वर्णन है की एक ब्राह्मण था । (कुछ विद्वान बताते है की वह ब्राह्मण नहीं ,एक भुलई नाम का कलवार था जो भक्ति पथ और गोस्वामी जी की निन्दा किया करता था ।) उसकी मृत्यु हो गयी । उसकी पत्नी उसके साथ सती होने के लिए जा रही थी । गोस्वामी श्री तुलसीदास जी अपनी कुटी के द्वारपर बैठे हुए भजन कर रहे थे । उस ब्राह्मण की स्त्री ने उन्हें दूर से ही देखा तो फिर श्री चरणों में आकर इन्हें प्रणाम किया । श्री तुलसीदास जी ने उसे आशीर्वाद देते हुए कहा की सौभाग्यवती होओ । उसने कहा की मेरे पति का देहांत हो गया है और मै सती होने के लिए श्मशान घात पर जा रही हूं । तब इस आशीर्वाद का क्या अर्थ होगा ?

गोस्वामीजी ने कहा कि अब तो मेरे मुख से आशीर्वाद निकल चूका है ,यदि तुम और तुम्हारे परिवार के लोग भगवान श्रीराम का भजन करें तो मै तुम्हारे मृत पति को जीवित कर दूं । यदि काल सत्य है , तो मेरे प्रभु काल के भी काल है – यह बात भी तो सत्य है ।उस स्त्री ने अपने सभी कुटुम्बियों को बुलाकर कहा की यदि आपलोग सच्चे हृदय से श्रीराम भक्ति करने की दृढ़ प्रतिज्ञा करे तो मेरे यह मृत पति जीवित हो जायेंगे ।सभी ने गोस्वामीजी की बात को स्वीकार करते हुए श्रीरामनाम का संकीर्तन प्रारंभ किया । तब गोस्वामी जी ने उसे सुंदर भक्तिमय जीवन दान दिया । श्री राम की कृपा से उस ब्राह्मण को जीवन दान मिल गया और इससे प्रभावित होकर उसके परिवार के लोग भगवद्भक्त हो गए ।

धनिदास पर कृपा :

एक बार गोस्वामी जी ने जनकपुर की यात्रा की । रास्ते में बहुत से लोगों का कल्याण किया । अनेकों चमत्कार प्रकट हुए । एक स्थानपर धनिदास नामक व्यक्ति रहता था ,उस गाँव में एक मंदिर था । मंदिर में जब धनिदास भगवान् को भोग लगाने जाता था तो परदे के पीछे से एक चूहा आकर भोग प्रसाद ले जाता था एयर बर्तनों की आवाज भी आती थी । धनिदास कहता था की भगवान् हमारे हाथ से भोग ग्रहण करते है । सब लोग धनिदास की बात मानने लगे थे ।एक दिन धनिदास ने देखा की भोग प्रसाद तो चूहा खा जाता है परंतु गाँव में उसकी इज्जत घट जायेगी इस भय से यही कहता रहा की भगवान् भोग लगाते है । एक दिन कुछ लोगो ने भगवान् के भोग ग्रहण करने की बात गाँव के जमींदार रघुनाथ सिंह से जाकर कही ।

shri bhaktmal katha shri Tulsidas ji</p>

जमींदार ने धनिदास के यहां आकर देखा तो धनिदास ने यही कह दिया की भगवान् भोजन कर रहे है। जमींदार ने कहा की कल आकर हम स्वयं देखेंगे की भगवान् भोग ग्रहण करते है या नहीं ।धनीदास जनता था की श्री तुलसीदास जी महान् संत है । उसने आकर तुलसीदास जी से कहा कि कल मेरे प्राण जानेवाले है, मैने यह कहकर कि भगवान् भोजन कर रहे हैं चूहे को प्रसाद खिला दिया । यहाँ के जमींदार रघुनाथ सिंह को मेरा अपराध पता हो गया तो मेरे प्राण जायेंगे ।उन्होने कहा है कि यदि कल मेरे सामने भगवान् भोजन नहीं करेंगे तो मैं तुम्हारा वध कर दूंगा । मै अब ऐसा अपराध नहीं करूँगा ,आप मेरी रक्षा कीजिये । गोस्वामी जी ने उन्हें ढाडस बंधाया । धनीदास ने रसोई बनायी और जमींदार के सामने लाकर भगवान के सामने पधराया ।

तुलसीदास जी ने भगवान् से प्रार्थना की के कृपा करके धनिदास जी के प्राणों की रक्षा करे । भगवान् श्रीराम ने साक्षात् प्रकट होकर वहाँ भोजन किया । गोस्वामी जी ने भगवान की महिमा गायी । धनिदास ने जमींदार से सच कह दिया की यह सब गोस्वामी जी की कृपा है । जमींदार तुलासीदास जी को अपने घर ले गया । उसके गाँव का नाम बदलकर रघुनाथपुर रख दिया ।

जानकी जी की कृपा :

वहाँ से चलकर विचरते विचरते वे हरिहर क्षेत्र पहुंचे और मिथिला पास ही रह गयी । श्रीज़नक नंदिनी श्रीजानकी जी एक बालिका का वेष धारण करके आयीं और गोस्वामी जी को खीर खिलायी । जब गोस्वामी जी को यह बात ज्ञात हुई तब वे उनकी अहैतुकी कृपा का अनुभव कर भाव विह्नल हो गये ।

ब्राह्मणों पर कृपा :

आगे चलनेपर ब्राह्मणो ने उनके पास आकर कहा कि हमलोग बडी विपत्ति में है । यहाँ के नवाब ने हमारी बारहों गाँव की वृति छीन ली है । गोस्वमी जी ने श्री हनुमान जी का स्मरण किया और उन्होंने दण्ड देकर सबकी वृत्ति वापस करा दी । संवत् १६४० में वे मिथिला से काशी आये और वहाँ दोहावली की रचना की । संवत् १६४२ फाल्युन शुक्ल पंचमी को पर्वतीमंगल की रचना प्रारम्भ की।

जय संवत् फाल्गुन सुदि पाँचौ गुरु दिनु ।
अस्विनी बिरचेउँ मंगल सुनि सुख छिनु छिनु ।। (पर्वतीमंगल ५) 

महामारी से रक्षा :

एक बार काशी मे महामारी का प्रक्रोप हुआ । सब लोगो ने बडी दीनता से प्रार्थना की कि हे स्वामिन् ! आप हमलोगो की प्रार्थना सुनिये । हमलोग बडे निर्बल हैं । हमारी रक्षा भगवान् के सेवक या स्वयं भगवान् ही कर सकते हैं । उनकी दीनता देखकर तुलसीदास जी का कोमल चित्त द्रवित हो गया और उन्होने कवित्त बनाकर भगवान् से प्रार्थना की । भगवान् की कृपा से महामारी शान्त हो गयी सब लोग सुखी हो गये ।

shri bhaktmal katha shri Tulsidas ji</p>

केशवदास और तुलसीदास भेट :

संवत् १६४३ के लगभग एक दिन महाकवि केशव दास तुलसीदास जी से मिलने आये । केशवदास संस्कृत के ऊँचे विद्वान थे। उनके कुल में भी संस्कृत का ही प्रचार था। नौकर-चाकर सब संस्कृत ही बोलते थे । उनके कुल में भी संस्कृत छोड़ हिंदी भाषा में कविता करना उन्हें कुछ अपमानजनक-सा लगाता था । तुलसीदास जी की कुटिया के बाहर से उन्होने सूचना भेजी कि मैं मिलना चाहता हूं । गोस्वामी जी ने कहा कि केशव प्राकृत कवि हैं उन्हे आने दो । यह बात केशव के कानों में पडी । वे बिना मिले ही लौट गये । अपनी तुच्छता उनकी समझ मे आ गयी और वहाँ के सेवक के पुकारनेपर उन्होने कहा कि मैं कल आऊंगा । घर जाकर सरल हिंदी में राम चंद्रिका की रचना की और फिर उसके बाद गोस्वामी जी के पास आ गये । दोनों खूब हृदय से मिले । प्रेम भक्ति का आनन्द छा गया ।

प्रेत का उद्धार :

एक बार आदिल शाही राज्य के थानाध्यक्ष दत्तात्रेय नाम के ब्राह्मण गोस्वामी जी के पास आये । उनके प्रसाद मांगनेपर गोस्वामी जी ने अपनी हस्तलिखित दोहावली रामायण की पोथी दे दी । उन दिनों जिसपर विपत्ति आती, वही गोस्वामी जी के पास आता और गोस्वामी जी उसकी रक्षा करते । नीमसार के वनखण्डी जी के पास तीर्थयात्रा करता हुआ एक प्रेत आया । कई वर्षो से प्रेत योनि में भटक रहा था । कई तीर्थो में जाकर आया पर प्रेत योनि से नहीं छुटा । वनखंडी जी के पास गोस्वामी जी बैठे हुए थे । प्रेत ने गोस्वामी जी के दर्शन किये और दर्शन मात्रसे वह प्रेत योनिसे मुक्त हो गया और दिव्य रूप धारण करके भगवान् श्रीराम के धाम में चला गया ।

वनखण्डी जी की प्रार्थना से गोस्वामी जी ने तीर्थयात्रा की । अयोध्या मे पहुंचकर उन्होने राम नामक गायक को गीतावली दे दी । वहाँ से वे अनेकों तीर्थो मे गये,कही दुखियों की रक्षा करते कही सत्संग से साधुओ को आनंदित करते ,कही भगवान् की कथा कहते । उस यात्रा मे गोस्वामी जी ने कितने लोगो का लौकिक पारलौकिक और पारमार्थिक कल्याण -साधन किया, यह वर्णनातीत है ।

नीमसार पहुंचकर गोस्वामी जी ने वनखण्डी जी की इच्छा अनुसार सब तीर्थ-स्थानो को ढूंढ निकाला और उनकी स्थापना की । उस समय संवत् १६४९ था ।

कौशल्यानंदन भगवान् का श्री विग्रह स्थापित :

कुछ लोग दक्षिण देश से भगवान् श्रीराम की मूर्ति लेकर स्थापना करने के लिये श्रीअवध जा रहे थे । यमुना-तट पर उन्होंने विश्राम किया । उदय नामके ब्राह्मण वह मूर्ति देखकर मुग्ध हो गये । उन्होंने चाहा कि इस मूर्ति की स्थापना यहीं पर हो जाय । गोस्वामी जी से प्रार्थना की। दूसरे दिन जब उन लोगों ने उस प्रतिमा को उठाकर ले जाना चाहा तब वह उठी ही नहीं । तब उसकी स्थापना वही कर दी । गोस्वामी जी ने उनका नाम कौसल्यानन्दन रख दिया । श्रीगोस्वामी जी के विद्या पढ़ने के समय के गुरुभाई नंददासजी कनौजिया यहीं मिले । उनके साथ भगवान् का दर्शन एवं प्रसाद पाकर भक्तों को आनंदित कर गोस्वामी जी ने चित्रकूट की यात्रा की ।

shri bhaktmal katha shri Tulsidas ji</p>

प्रेत केशवदास पर कृपा :

दिल्ली के बादशाह अकबर ने गोस्वामी जी के चमत्कारों के बारे में बहुत कुछ सुना था । बादशाह ने अपना आदमी भेजकर गोस्वामी जी को दरबार में लेकर आने को कहा । जब गोस्वामी जी चित्रकूट से चलकर ओरछा होकर दिल्ली के रास्ते जाने लगे, तब ओरछा के पास रात मे केशवदास प्रेत के रूप में मिले । गोस्वामी जी ने बिना प्रयास ही उनका उद्धार किया और वे विमानपर चढ़कर भगवान् के धाम को गये ।

एक स्त्री का पुरुष में बदल जाना :

चरवारी के ठाकुर की लडकी जो कि बहुत ही सुन्दरी थी । इसके माता पिता को बहुत प्रयास करने पर पुत्र प्राप्त नहीं हुआ , पुत्री हो गयी । उन्होंने सबसे यह बात छुपाकर रखी की हमें पुत्री हुई है । उन्होंने बचपन से ही उस पुत्री को पुरुष जैसे कपडे पहनाएं , बोलचाल भी लड़के जैसे सिख रखी थी । जब विवाह का समय आया तो माँ बाप ने सत्य बात किसीसे कही नहीं ,क्योंकि उनकी इज्जत पानी में मिल जाती । अब उनकी पुत्री जीसे उन्होंने पुरुष की तरह बनवा रखा था ,उसका विवाह एक स्त्री के साथ हो गया था । विवाह के बाद सच सामने आ गया की यह तो स्त्री है ,ना की कोई पुरुष । परंतु विवाह हो चुका था, लोग करते ही वया ? स्त्री का विवाह स्त्री से हो गया । एक दिन जब गोस्वामी जी उधर से निकले, तब लोर्गोंने उन्हें घेर लिया और प्रार्थना की कि इस कन्या की रक्षा कीजिये । गोस्वामी जी ने श्री रामचरितमानस का नवाह पाठ किया और वह स्त्री सें पुरुष बन गयी । यह देखकर गोस्वामी जी का शरीर पुलकित हो गया और उनके मुंह से अतर्कित ही ‘जय जय सीताराम’ निकल गया ।

अकबर के दरबार में गोस्वामी जी :

गोस्वामी जी दिल्ली पहुंचे । बादशाह ने दरबार में बुलाकर कहा कि कोई चमत्कार दिखाओ । गोस्वामी जी ने कहा कि मुझे कोई चमत्कार मालूम नही । बादशाह ने खीझकर उन्हे कैद कर लिया । जेल मे जाते ही – ‘ ऐसी तोहि न बूझिये हनुमान हठीले ‘ पद की रचना की । फिर क्या था, वानरों ने बडा उत्पात किया । महल मे कोहराम मच गया । बादशाह को बडी चोट आयी, फिर तो तुरंत गोस्वामी जी जेलसे छोड़ दिये गये और बडा अनुनय विनय करके उनसे अपराध क्षमा कराया गया । बादशाह ने बडे सम्मान के साथ उन्हें विदा किया ।

भक्तमाल सुमेरु गोस्वामी श्री तुलसीदास जी :

श्री नाभादास जी ने भक्तो की माला (भक्तमाल ) की रचना की । अब माला का सुमेरु का चयन करना कठिन हो गया । किस संत को सुमेरु बनाएं इस बात का निर्णय कठिन हो रहा था । पूज्य श्री अग्रदेवचार्य जी के चरणों में प्रार्थना करने पर उन्होंने प्रेरणा की के वृंदावन में भंडारा करो और संतो का उत्सव करो ,उसी भंडारे उत्सव में कोई न कोई संत सुमेरु के रूप में प्राप्त हो जायेगा । सभी तीर्थ धामो में संतो को कृपापूर्वक भंडारे में पधारने का निमंत्रण भेजा गया । काशी में अस्सी घाट पर श्री तुलसीदास जी को भी निमंत्रण पहुंचा था परंतु उस समय वे काशी में नहीं थे । उस समय वे भारत के तत्कालीन बादशाह अकबर के आमंत्रण पर दिल्ली पधारे थे ।

दिल्ली से लौटते समय गोस्वामी तुलसीदास जी वृंदावन दर्शन के लिए पहुंचे । वे श्री वृंदावन में कालीदह के समीप श्रीराम गुलेला नामक स्थान पर ठहर गए । श्री नाभाजी का भंडारे में पधारना अति आवश्यक जानकार गोपेश्वर महादेव ने प्रत्यक्ष दर्शन देकर गोस्वामी जी से भंडारे में जाकर संतो के दर्शन करने का अनुरोध किया । गोस्वामी जी भगवान् शंकर की आज्ञा पाकर भंडारे में पधारे । गोस्वामी जी जब वहां पहुंचे उस समय संतो की पंगत बैठ चुकी थी । स्थान पूरा भरा हुआ था ,स्थान पर बैठने की कोई जगह नहीं थी ।

तुलसीदास उस स्थान पर बैठ गए, जहां पूज्यपाद संतों के पादत्राण (जूतियां )रखी हुई थीं। परोसने वालो ने उन्हें पत्तल दी और उसमे सब्जियां व पूरियां परोस दीं। कुछ देर बाद सेवक खीर लेकर आया । उसने पूछा – महाराज ! आपका पात्र कहाँ है ? खीर किस पात्र में परोसी जाये ? तुलसीदास जी ने एक संत की जूती हाथो में लेकर कहा -इसमें परोस दो खीर । यह सुनते ही खीर परोसने वाला क्रोधित को उठा बोला – अरे राम राम ! कैसा साधू है जो कमंडल नहीं लाया खीर पाने के लिए ,अपना पात्र लाओ । पागल हो गये हो जो इस जूती में खीर लोगे?

शोर सुनाई देने पर नाभादास जी वह पर दौड़ कर आये ।उन्होने सोचा कही किसी संत का भूल कर भी अपमान न हो जाए । नाभादास जी यह बात नहीं जानते थे की तुलसीदास जी वृंदावन पधारे हुए है । उस समय संत समाज में गोस्वामी जी का नाम बहुत प्रसिद्ध था, यदि वे अपना परिचय पहले देते तो उन्हें सिंहासन पर बिठाया जाता परंतु धन्य है गोस्वामी जी का दैन्य । नाभादास जी ने पूछा – संत भगवान् !आप संत की जूती में खीर क्यों पाना चाहते है ?यह प्रश्न सुनते ही गोस्वामी जी के नेत्र भर आये । उन्होंने उत्तर दिया – परोसने वाले सेवक ने कहा की खीर पाने के लिए पात्र लाओ । संत भगवान् की जूती से उत्तम पात्र और कौनसा हो सकता है ? जीव के कल्याण का सरल श्रेष्ठ साधन है की उसे अकिंचन भक्त की चरण रज प्राप्त हो जाए । प्रह्लाद जी ने कहा है – न अपने आप बुद्धि भगवान् में लगती है और न किसी के द्वारा प्रेरित किये जाने पर लगती है । तब तक बुद्धि भगवान् में नहीं लगती जब तक किसी आकिंचन प्रेमी रसिक भक्त की चरण रज मस्तक पर धारण नहीं की जाती ।

यह जूती परम भाग्यशालिनी है । इस जूती को न जाने कितने समय से संत के चरण की रज लगती आयी है और केवल संत चरण रज ही नहीं अपितु पवित्र व्रजरज इस जूती पर लगी है । यह रज खीर के साथ शरीर के अंदर जाएगी तो हमारा अंत:करण पवित्र हो जाएगा । संत की चरण रज में ऐसी श्रद्धा देखकर नाभा जी के नेत्र भर आये । उन्होंने नेत्र बंद कर के देखा तो जान गए की यह तो भक्त चरित्र प्रकट करते समय(भक्तमाल लेखन के समय) हमारे ध्यान में पधारे हुए महापुरुष है । नाभाजी ने प्रणाम् कर के कहा – आप तो गोस्वामी श्री तुलसीदास जी है , हम पहचान नहीं पाये ।
गोस्वामी जी ने कहा – हां ! संत समाज में दास को इसी नाम से जाना जाता है । परोसने वाले सेवक ने तुलसीदास जी के चरणों में गिरकर क्षमा याचना की । सभी संतो ने गोस्वामी जी की अद्भुत दीनता को प्रणाम् किया ।

इसके बाद श्री नाभादास जी ने गोस्वामी तुलसीदास जी को सिंहासन पर विराजमान करके पूजन किया और कहा की इतने बड़े महापुरुष होने पर भी ऐसी दीनता जिनके हृदय में है ,संतो के प्रति ऐसी श्रद्धा जिनके हृदय में है, वे महात्मा ही भक्तमाल के सुमेरु हो सकते है । संतो की उपस्तिथि में नाभादास जी ने पूज्यपाद गोस्वामी तुलसीदास जी को भक्तमाल सुमेरु के रूप में स्वीकार किया । जो भक्तमाल की प्राचीन पांडुलिपियां जो है ,उनमे श्री तुलसीदास जी के कवित्त के ऊपर लिखा है – भक्तमाल सुमेरु श्री गोस्वामी तुलसीदास जी महाराज ।

shri bhaktmal katha shri Tulsidas ji</p>

तुलसीदास जी को भगवान् श्री कृष्ण का राम रूप में दर्शन देना :

वहाँ से गोस्वामी जी नाभादास जी को साथ लेकर श्री मदनमोहन जी के दर्शन करने गए । गोस्वामी जी ने भगवान् श्री मदन मोहन जी से प्रार्थना की – प्रभो ! आपकी यह छबि अवर्णनीय है ,परंतु सच्ची बात तो यह है की भगवान् श्रीराम मेरे इष्टदेव है ।

का बरनउँ छबि आज की,भले बने हो नाथ ।
तुलसी मस्तक तब नवै(जब ) धनुष बान लेओ हाथ ।।

उस समय तुलसीदास जी की दृष्टी प्रेम में पगी हुई थी । भक्त की भावना- प्रार्थना को स्वीकार कर श्रीकृष्ण ने हाथ में धनुषबाण ले लिया और श्री राम रूप में दर्शन दिया ।अपने मन के अनुरूप अपने इष्टदेव की शोभा – सुंदरता जब आपने देखी तो इन्हें अत्यंत ही प्रिय लगी । कुछ श्री कृष्ण के अनन्य उपासको ने कहा – भगवान् श्री कृष्ण सोलह कलाओं से पूर्ण प्रशंसनीय है और श्री रामचंद्र जी अंशावतार है । यह सुनकर गोस्वामी जी ने उत्तर दिया की अबतक तो मै उन्हें श्री दशरथ जी का पुत्र,परम सुंदर उपमारहित जानकार उनसे प्रेम करता था, परंतु आज आपके द्वारा मालूम हुआ कि उनमें ईश्वरता भी है । अब उनमें मेरी प्रीति करोड़ों गुनी अधिक हो गयी है । वहाँ से आगे से चलकर अनेक प्राणियो का उद्धार करते हुए,लोगों को अपने धर्म मे स्थिर और भगवान् की ओर बढाते हुए वे अयोध्या आये ।

shri bhaktmal katha shri Tulsidas ji</p>

भजन गायक भक्त :

एक भक्त भजन गाया करते थे । उनके भजन मे कुछ अशुद्धि थी, गोस्वामी जी ने उसे सुधारने को कहा । वे सुधार न सके, इससे उनके भजन में विघ्न पड़ गया । स्वप्न में गोस्वामी जी से भगवान ने कहा कि तुम उसके भज़न में शुद्ध अशुद्ध का विचार मत करो । वह जैसे भजन करता है वैसे ही करने दो । गोस्वामी जी ने जाकर उससे कहा कि तुम जैसे गाते थे, वैसे ही गाया करो । गोस्वामी जी ने उनके मुख से भगवान् की बाल लीला सुनी । बडा आनन्द हुआ । उन्हें पीताम्बर देकर गोस्वामी जी ने सम्मान किया । मुरारीदेव से भेट करके मलूकदास के साथ गोस्वामी जी काशी आये ।

वेश्या का उद्धार :

काशी में उन्होने क्षेत्र संन्यास ले लिया । शरीर वृद्ध हो गया था, फिर भी वे माघ के महीने मे सूर्योदय से पूर्व गंगा जी में खडे होकर मन्त्र जप किया करते थे । रोएँ खडे होते, शरीर कांपता होता परंतु उन्हें इसकी तनिक भी परवाह नही । एक दिन गंगा स्नान करके निकलते समय उनकी धोती का दो बूंद छींटा एक वेश्यापर पड़ गया । तुरंत उसकी मनोदशा ही बदल गयी । वह बहुत देरतक उन्हें एकटक देखती रही, पीछे उसके मन मे बडा निर्वेद हुआ । उसकी आंखो के सामने नरक के अनेकों दृश्य आ गये । उसने सब बखेडो से पिण्ड छुड़ा लिया और उपदेश लेकर भगवान् के गुणो का गायन करने लगी ।

 

shri bhaktmal katha shri Tulasidas ji
shri bhaktmal katha shri Tulsidas ji

 

हरिदत्त ब्राह्मण पर कृपा :

गंगा पार हरिदत्त नामके एक ब्राह्मण रहते थे । बहुत ही दरिद्र थे, उन्होने गोस्वामी जी से अपना दुख निवेदन किया । गोस्वामी जी ने श्री गंगा माता से प्रार्थना की , प्रसन्न होकर गंगा माता ने उसको बहुत सी जमीन देकर उसकी विपति नष्ट कर दी ।

जगन्नाथ जी का दर्शन :

एक बार तुलसीदास जी भगवान् का दर्शन करने श्री जगन्नाथ पुरी गये। मंदिर में भक्तों की भीड़ देख कर प्रसन्नमन से अंदर प्रविष्ट हुए। जगन्नाथ जी का दर्शन करते ही वे निराश हो गये और विचार करने लगे की यह बिना हाँथ पाँव वाल लकड़े का विग्रह हमारा इष्ट नहीं हो सकता। हमारे इष्ट के हाथ में तो धनुष बाण है , वक्षः स्थल सिंह जैसा चौड़ा है ,लंबी भुजाएं है । बाहर निकल कर दूर एक वृक्ष के तले बैठ गये। सोचाने लगे कि इतनी दूर आना व्यर्थ हुआ। क्या गोलाकार नेत्रों वाला हस्तपादविहीन दारुदेव मेरा राम हो सकता है? कदापि नहीं। रात्रि हो गयी , भुख प्यास के मारे तुलसीदास जी बहुत श्रमित हो गए थे । अचानक एक आहट हुई। वे ध्यान से सुनने लगे। अरे बाबा ! तुलसीदास कौन है? तुलसीदास कौन है ? एक बालक हाथों में प्रसादी भाट की थाली लिए पुकार रहा था। तभी आप उठते हुए बोले–मैं ही हूँ तुलसीदास।कहो क्या बात है ?

बालक ने कहा- आप यहाँ हैं, मैं बड़ी देर से आपको खोज रहा हूँ। बालक ने कहा -जगन्नाथ जी ने आपके लिए प्रसाद भेजा है। तुलसीदास बोले – कृपा करके आप इसे वापस ले जायँ। बालक ने कहा, आश्चर्य की बात है -जगन्नाथ का भात पाने दूर दूर से लोग आते है । कितने भक्त तरसते है इस प्रसाद को पाने के लिए और आप अस्वीकार कर रहे हैं, ऐसा क्यों ?तुलसीदास बोले -मैं बिना अपने इष्ट को भोग लगाये कुछ ग्रहण नहीं करता। फिर यह जगन्नाथ का जूठा प्रसाद जिसे मैं अपने इष्ट को समर्पित न कर सकूँ, इसका भोग मै श्रीराम को कैसे लागउँ ? बालक ने मुस्कराते हुए कहा- बाबा ! आपके इष्ट ने ही तो भेजा है। तुलसीदास बोले – यह हस्तपादविहीन दारुमूर्ति मेरा इष्ट नहीं हो सकता। बालक ने कहा कि अपने श्री रामचरितमानस में तो आपने इसी रूप का वर्णन किया है –

shri bhaktmal katha shri Tulsidas ji</p>

बिनु पद चलइ सुनइ बिनु काना।
कर बिनु कर्म करइ बिधि नाना॥
आनन रहित सकल रस भोगी।
बिनु बानी बकता बड़ जोगी॥

यह बात सुनते ही तुलसीदास के नेत्रों से अश्रुधारा बहने लगी ,मौन हो गए । थाल रखकर बालक यह कहकर अदृश्य हो गया कि -मैं ही राम हूँ। मेरे मंदिर के चारों द्वारों पर हनुमान का पहरा है। विभीषण नित्य मेरे दर्शन को आता है। कल प्रातः तुम भी आकर दर्शन कर लेना। तुलसीदास जी ने बड़े प्रेम से प्रसाद ग्रहण किया। प्रातः मंदिर में उन्हें जगन्नाथ, बलभद्र और सुभद्रा के स्थान पर श्री राम, लक्ष्मण एवं जानकी के भव्य दर्शन हुए। भगवान ने भक्त की इच्छा पूरी की। जिस स्थान पर तुलसीदास जी ने रात्रि व्यतीत की थी, वह स्थान “तुलसी चौरा” नाम से विख्यात हुआ। वहाँ पर तुलसीदास जी की पीठ बड़छता मठ के नाम से प्रतिष्ठित है ।

तीन भक्त बालक :
तीन बालक बडे ही पुण्यात्मा थे । वे प्रतिदिन गोस्वामी जी के दर्शन के लिये आते । गोस्वामी जी उनका प्रेम पहचानते थे । वे केवल उन्हें ही दर्शन देने के लिये बाहर निकलते और फिर अंदर जाकर बैठ जाते । जिन्हें दर्शन नहीं मिलता, वे इस बात से अप्रसन्न थे । गोस्वामी जी को पक्षपाती कहने लगे । एक दिन गोस्वामी जी ने उनका महत्त्व सब लोगोंपर प्रकट किया । उनके आनेपर भी वे बाहर नहीं निकले ,अंदर ही बैठे रहे । तुलसी बाबा का दर्शन न मिलनेपर उन तीनो बालकों ने अपने शरीर त्याग दिये । गोस्वामी जी बाहर निकले और सबके सामने भगवान् का चरणामृत पिलाकर उन्हें जीवन दान दिया ।

संवत् १६६९ वैशाख शुक्ल में टोडरमल जी का देहान्त हुआ । उसके पांच महीने बाद उनके दोनों लड़को को उनकी धन सम्पत्ति गोस्वामी जी ने बाँट दी । इसके बाद छोटी मोटी और कई रचनाएँ की। बाहु पीडा होनेपर हनुमान बाहुक का निर्माण किया । पहले के ग्रंथो को दुहराया, दूसरों से लिखवाया । संवत् १६७० बीतनेपर जहाँगीर आया, वह बहुत सी जमीन और धन देना चाहता था परंतु गोस्वामी जी ने ली नही । एक दिन बीरबल की चर्चा हुई, उनकी बुद्धि और वाक्पटुता की गयी । गोस्वामी जी ने कहा कि खेद है कि इतनी बुद्धि पाकर उन्होने भगवान् का भजन नहीं किया ।

shri bhaktmal katha shri Tulsidas ji</p>

अयोध्या धाम में श्रद्धा :

एक दिन अयोध्या का भंगी आया । गोस्वामी जी भगवान् के धाम।में बड़ी निष्ठा रखते थे । अयोध्या के सब वासी सरकार के परिकर है यही समझते थे । तुलसीदास जी के पास भंगिनाय तो उन्होंने उसे भगवान् का स्वरूप समझकर अपने हृदय से लगा लिया । एकबार गिरनार पर्वत गुजरात प्रान्त के बहुत से सिद्ध आकाश मार्ग से आये । तुलसीदास जी का दर्शन करके बड़े आनंदित हुए । उन्होने बडे प्रेम से पूछा कि तुम कलियुग में रहते हो फिर भी काम से प्रभावित नहीं होते, इसका क्या कारण है ? यह योग की शक्ति है अथवा भक्ति का बल है । गोस्वामी जी ने कहा कि मुझे न भक्ति का बल है, न ज्ञान का बल है, न योग का बल है । मुझे तो केवल भगवान् श्रीराम के नाम का भरोसा है । गोस्वामीजी का उत्तर सुनकर वे सिद्ध बहुत प्रसत्र हुए । उनसे आज्ञा लेकर गिरनार चले गये ।

चन्द्रमणि भाट और गोस्वामी जी :

गोस्वामी जी के पास चन्द्रमणि नाम का एक भाट आया । उसने उनके चरणोंमें गिरकर प्रार्थना की मेरी आधी उमर विषयो के भोग में ही बीत गयी । अब जो बची है, वह भी वैसे ही न बीत जाय । इंद्रियों के कारण मेरी बड़ी हंसी हुई। कही अब भी न हो ! मेरे मन मे काम-क्रोधादि बड़े -बड़े खल रहते है । कहीं अब भी वे न रह जायें ? महाराज ! अब मुझे भगवान् के चरणो मे ही रखिये ! काशी से मत हटाइये । गोस्वामी जी ने उसकी प्रार्थना स्वीकार कर ली । बडी प्रसन्नता से कहा कि तुम यहीं हमेशा रहो और भगवान् का गुणगान करो ।

विनय पत्रिका की रचना :

एक दिन रात को कलयुग मूर्तरूप धारणकर उनके पास आया और उन्हें त्रास देने लगा । गोस्वामी जी ने श्री हनुमान जी का ध्यान किया । श्री हनुमान जी ने उन्हें विनय के पद रचने को कहा, इसपर गोस्वामी जी ने विनय -पत्रिका लिखी और भगवान् के चरणों में समर्पित कर दी। श्रीराम ने उसपर हस्ताक्षर कर दिये और श्री तुलसीदास जी को निर्भय कर दिया ।

shri bhaktmal katha shri Tulsidas ji</p>

श्री तुलसीदास जी का साकेत गमन :

गोस्वामी जी का अंतिम समय आ गया । उन्होने अपनी दशा देखकर लोगों से कहा कि -श्रीरामचन्द्र जी के चरित्र का वर्णन करके अब मैं मौन होना चाहता हूं । आप लोग तुलसीदास के मुख में अब तुलसी डालें । संवत् १६८० श्रावण कृष्ण तृतीया शनिवार को गंगा जी के तटपर अस्सी घाटपर गोस्वामी जी ने राम राम कहते हुए अपने शरीर का परित्याग किया । गोस्वामी जी अमर हैं, वे अब भी श्री रामचरिमानस के रूपमें लोगो के बीच मे विद्यमान हैं ।अनन्त कालतक हमलोगो मे ही रहकर हमलोगो का कल्याण करेंगे । भक्त भगवान् से पृथक नहीं होते । भक्त ही भगवान् के मूर्त स्वरूप हैं, वे कृपा करके हमरे हृदय को शुद्ध करें और भगवान् के चरणो मे निष्कपट प्रेम दें ।

यह जीवनी गोसाईजी के समकालीन श्री बेनीमाधव दासजी द्वारा रचित मूल गोसाई चरित नामक पोथी और नाभादास जी कृत श्री भक्तमाल के आधारपर लिखी गयी है । कुछ सज्जनो ने मूल गुसाई चरित्र पोथी को अप्रामाणिक माना है, परंतु महात्मा बलकराम जी विनायक, रायबहादुर बाबू , श्याम सुन्दरदासजी, श्री श्री रामदास जी गौड आदि महानुभावो ने इसको अत्यन्त विश्वसनीय और प्रामाणिक माना है ।

श्री बेनीमाधव दास जी की पहली भेट श्री गोस्वामी जी से संवत् १६०९ और १६१६ के बीच हुईं थी । गोस्वामी जी महाराज १६८० में साकेतवासी हुए थे । इतने लम्बे परिचयवाले सज्जन की लिखी जीवनी को अप्रामाणिक कैसे कहा जा सकता है ? भक्तमाल का चरित्र भी इससे मेल खाता है । श्री तुलसीदास जी के चरणों में हमारा कोटि कोटि प्रणाम् है ।

shri bhaktmal katha shri Tulsidas ji</p>

Click here to download Bhaktmal


Check This Also: Shri Bhaktamal Katha
Read More :

Narayanpedia पर आपको  सभी  देवी  देवताओ  की  नए  पुराने प्रसिद्ध  भजन और  कथाओं  के  Lyrics  मिलेंगे narayanpedia.com पर आप अपनी भाषा  में  Lyrics  पढ़  सकते  हो।