श्री भक्तमाल ११ – श्री एकनाथ जी
श्री भक्तमाल श्री एकनाथ जी
संत श्री एकनाथ जी का जीवन चरित्र अध्यात्म मार्ग के साधकों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है । उनके जीवन के कुछ प्रसंग यहां निचे दिए गए है ।श्री गुरु परम्परा इस प्रकार है –
श्री आदिनारायण – श्री ब्रह्मा – श्री अत्रि मुनि – श्री दत्तात्रेय महामुनि – श्री जनार्दन सवामी – श्री एकनाथ । श्री दत्तात्रेय भगवान् के ३ शिष्य हुए है – सहस्त्रार्जुन , यदु और कलियुग में श्री जनार्दन स्वामी । श्री जनार्दन स्वामी संत एकनाथ जी के गुरुदेव है ।
१. क्रोध दिलाने पर २०० रुपये इनाम और ब्राह्मण पर एकनाथ जी की कृपा – श्रीधाम पंढरपुर के पास पैठण नाम का गांव पड़ता है जहां संत श्रीएकनाथजी विराजते थे । एकनाथ महाराज का कीर्तन सुनकर जिनका सिर दर्द करता ऐसे कुछ अभागे लोग पैठण मे रहते थे । वे लोग एकनाथ जी से जलते थे । एक दिन एक ब्राह्मण पैठण ग्राम मे आया । पैठण भले और विद्वान् लोगों का स्थान होने से वह ब्राह्मण वहां इस आशा से आया था कि लड़के के उपनयन (जनेऊ) संस्कार के लिये यहांसे सौ दोसौ रुपये मिल जायंगे ।
उसको वहाँ के कुछ बदमाश लोगो ने देखा और पूछा – यहां पहली बार देखा तुम्हे ? पैठण में नए हो क्या ? उस ब्राह्मण ने पैठण में आने का कारण उन लोगो को बताया । दुष्ट लोग बोले -यहां एकनाथ नामके एक बड़े भारी महात्मा हैं । बड़े ही शान्त हैं । उन्हें कभी क्रोध तो आता ही नहीं । तुम यदि कोई ऐसा काम करो की उन्हें चिढा दो तो तुम्हें हम दो सौ रुपये देंगे ।
अब एकनाथ महाराज को क्रोध दिलाने का उपाय सोचता हुआ वह ब्राह्मण दूसरे दिन सबेरे एकनाथ महाराज के घर पहुँचा । महाराज उस समय पूजा मे थे । वह ब्राह्मण बिना हाथ पैर धोये, बिना पूछे, बिना जूते उतारे सीधे एकनाथ जी के पूजा कक्ष मे पहुँचा और एकनाथ जी की गोद मे जाकर बैठ गया । वह समझता था कि अब एकनाथ जी को क्रोध आयेगा ।
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थोड़ा हँसकर एकनाथ जी ने उस ब्राह्मण से कहा कि आपके दर्शन से मुझे बडा आनन्द हुआ । मिलने तो बहुत लोग आते है पर अपका प्रेम कुछ विलक्षण है । बाजू में पत्नी गिरिजाबाई भगवान् के लिए चंदन घिसने की सेवा कर रही थी ।
उनसे एकनाथ जी बोले – यह ब्राह्मण देव हमसे इतना प्रेम करते है की इनको हमसे मिलने की लालसा में जूते उतारने तक का होश नही रहा । हे ब्राह्मण देव ! आपके जैसे प्रेमी बहुत कम मिलते है । इस प्रकार ब्राह्मण का पहला वार खाली चला गया । उसने समझा मामला जरा टेढा है पर दो सौ रुपये का लोभ उसके मन में था । उसने फिर एक बर प्रयत्न करने का निश्चय किया ।
एकनाथ महाराज स्नान संध्या आदि से निवृत हो चुके थे, मध्याह्न् भोजनका समय था। भोजन के लिये उस ब्राह्मण का आसन एकनाथ जी के बाजू मे लगाया गया । पत्तले परोसी गयीं, घी परोसने के लिये गिरिजा बाई झुकी, त्यों ही ब्राह्मण उनकी पीठपर चढ़ बैठा । तब एकनाथजी महाराज गिरिजाबाई से कहते है- सँभलना, ब्राह्मण देव कहीं नीचे न गिर पड़े । गिरिजा बाई भी एकनाथ महाराज की ही धर्मपत्नी थी । उन्होंने मुसकराते हुए उत्तर दिया- कोई हर्ज नही । हरि को (पुत्रको) पीठपर लेकर काम करते रहने का मुझे अभ्यास है ! मै भला अपने इस दूसरे बच्चे को नीचे कैसे गिरने दूंगी।
यह सब देखकर ब्राह्मणके होश उड़ गये, वह नीचे लुढककर एकनाथ महाराज के चरणोंपर गिर पडा । श्री एकनाथ जी ने उसे उठाया । ब्राहाणने सब हाल कह सुनाया और इस बातपर दु:ख भी प्रकट किया की मेरे दो सौ रुपये गये । तब एकनाथ महाराजने उससे कहा कि है यदि यह बात थी तो मुझसे पहले भी कह देते ।तुम्हें इनाम मिलनेवाला था, यह मुझे मालूम होता तो मै तुम्हारे ऊपर क्रोध करने का नाटक कर देता । संत एकनाथ जी ने उस ब्राह्मण को अपनी एक अंगूठी बेच कर रुपये दिए और बहार जाकर उन दुष्टो के सामने झूठा क्रोध करने का नाटक किया । उनसे भी उस ब्राह्मण को दो सौ रुपया मिला ।
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२. शरीर पर थूकने वाले यवन पर संत एकनाथ की कृपा –
पैठण में एकनाथ महाराज के घर से गोदावरी को जानेवाले रास्ते मे एक यवन रहा करता था । वह उस रास्ते से आने जानेवाले श्रद्धालुओं को बहुत तंग किया करता था । एकनाथ महाराज जब स्नान करके लौटते तब वह इनके उपर कुल्ला करके पिचकारी छोड़ता था । इससे एकनाथ महाराज को किसी किसी दिन चार चार पांच पांच बार स्नान करना पड़ जाता । जहाँ वह स्नान करके लौटने लगे कि यह उन्मत्त मनुष्य फिर उनपर थूके देता और महाराज फिर स्नान करने जाना पड़ता ।
इस हरकत से कोई भी आदमी चिढ़ जाता और चिढ़ना भी बिलकुल स्वाभाविक था, पर एकनाथ महाराज की शान्ति ऐसी विलक्षण थी कि बार बार एकनाथ महाराज गोदावरी गंगाजी आदि पवित्र नदियो का स्मरण वन्दन करके आनन्द से स्नान करते और धन्यवाद देते कि उस यवन के कारण मुझे इनती बार पवित्र नदियों मे सना करने का अवसर प्राप्त होता है। एक दिन तो यह बात हुई कि वह यवन उस मौके पर नही था, पर नाथ उसका नियम भंग न हो इस विचार से कुछ कालतक उसकी राह देखते हुए वही ठहर आये । कुछ काल प्रतीक्षा करके उसके अनेका कोई लक्षण नही देखा तब आगे बढे ।
एक बार वह यवन अत्यन्त उन्मत्त होकर एकनाथ जी की देहपर बार बार थूकता ही रहा। वह थूकता जाय और महाराज पुनः स्नान करते जाय, इस तरह कहते हैं कि एक सौ आठ बार हुआ (कई संतो ने २१ बार कहा है )। तथापि महाराज की शान्ति जरा भी भंग नहीं हुई । अन्त में यवन थक गया । लज्जित हुआ और महाराज के चरणों पर लोट गया । वह रोने लगा ।
श्री एकनाथ जी बोले – मै तो मुर्ख और आलसी हूँ, रोज एक ही बार गंगा स्नान कर पाता हूं । पर तुम्हारे कारण मुझे इतनी बार गंगा स्नान (गोदावरी दक्षिणी गंगा कही जाती है) करने का अवसर प्राप्त हुआ है । उसने रोना बंद नही किया तब एकनाथ जी बोले – तुम्हे इसका कोई पाप नही लगेगा । तुम्हारे तो बहुत उपकार है मुझपर, इस पुण्य का आधा भाग मै तुम्हे अर्पण करता हूँ । तुम रोना बंद करो और मेरे साथ घर चलो ,मै तुम्हे शरबत पिलाता हूँ ,तुम्हे अच्छा लगेगा । संत ह्रदय देख कर वह यवन पहचान गया की एकनाथ महाराज बड़े ऊँचे औलिया (परम संत)हैं और तबसे वह उनके साथ बड़े विनय और नम्रता से पेश आने लगा ।
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३. नाथ का अनोखा अतिथि सत्कार और ब्राह्मण भक्ति –
एक बार आधी रातके समय चार प्रवासी ब्राह्मण पैठण मे आये और रहने के लिये आश्रय दूंढ़ने लगे । उनसे कुछ दुष्ठोंने कहा- आपलोगों के ठहरने लायक एक स्थान है । यह सामने जो मकान है इस मे एकनाथ नामका एक बडा दाता रहता है । सैकडों ब्राह्मण एक साथ भी आ जाय तो भी सबको भोजन कराके वह सन्तुष्ट करता है । उसे सिद्धियां भी प्राप्त है। आपलोग वही जाइये ।
सात दिन से रात दिन ऐसी मूंसलधार वृष्टि हो रही थी कि नाथ महाराज के यहाँ सूखा इंधन बिलकुल नहीं रह गया था । जब ये प्रवासी नाथ महाराजके यहा पहुंचे तब सदा की भांति उनका आगत स्वागत हुआ । जब मालूम हुआ की ब्राह्मण भूखे है तब नाथ महाराज ने बहुत जल्द रसोई बनाने को गिरिजाबाई से कहा । लकडी गीली होने से रसोई जल्दी न बनेगी यह सोचकर उन्होंने उद्धव से कहा की – देखो, अपना यह मकान लकडी का ही तो है । एक मंजिल गिराकर लकडी इकट्ठी करो । पर यह सोचकर कि इसमें कुछ देर लगेगी, उन्होंने और भी जल्दी का एक उपाय किया ।
उन्होंने अपने पलंग को तोड़कर उसकी लड़की से तुरंत पानी गरम कराया और स्नान करने के लिये गरम पानी दिया । गिरिजाबाई ने स्वयं रसोई बनायी और भोजन परोसा। भोजन के समय गरमाहट के लिये अगीठियां ब्राह्मणो के समीप रखी गयी ।ब्राह्मणों ने यथेष्ट भोजन किया । नाथ महाराज का यह अतिथि प्रेम देखकर उन ब्राह्मणों ने उनकी बडी सराहना की और आशीर्वाद दिए ।
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४. नाथ महाराज की सहनशीलता और अतिथि प्रेम-
किसी-न-किसी प्रकार से लोगोंके कान भगवान् का नाम सुनें, इसलिये नाथ महाराज़ ने कई दिन यह उपाय किया कि जब कोई कीर्तन सुनने आता उसे अंजलि भर शक्कर बाँटते थे।
एक बार वडारी जाति के दो पुरुष और एक स्त्री शक्कर पानेकी आशासे महाराज के यहाँ आये, कीर्तन सुननेवाले श्रोताओंकी इतनी भीड़ थी कि इन्हें कहीं बैठने या खड़े होनेकी भी जगह न मिली । इसलिये ये लोग नाथके शयनागारमे ही घुस गये । कभी कीर्तन तो सुना था नहीं, यह अभ्यास ही नहीं था कि घडी दो-घडी आसन लगाकर बैठते और श्रवण करते । शयनागारमें जो घुसे सो निद्रा की इच्छा हुई । दोनों पुरुष नाथका पलंग मुलायम देखकर, उसपर जो जरा लेट गये कि उन्हें नींद आ गयी और उनके पायताने वह स्वी भी स्रो गयी । जब कीर्तन हो चुका, तब शक्वार लेकर सब लोग अपने अपने घर चले गये ।
मकान के बाहरी दरवाजे बंद करके उद्धव जब नाथका बिस्तर लगाने के लिये उनके शयनागार मे गये तब उन्होंने उन स्त्री पुरुषों को खर्राटे मारते हुए बेढंगे तौरपर पड़े देखा । उद्धवने शोर मचाना शुरू किया, तब नाथ उस कमरे मे आये और वे लोग भी जाग उठे । उद्धव मारे क्रोध के उनपर झपटे पर नाथने उनका हाथ पकड़कर उन्हें अलग किया और वडारियोंसे बड़े प्रेमसे बोले, तुम लोगों को नींद अच्छी लगी थी न, उद्धवने व्यर्थ ही तुम्हें जगाया। तुम लोग आरामसे सोओ, अब तुम्हें कोई नहीं जगावेगा और कोई गुस्सा भी नहीं होगा । यह सुनकर वडारी नाथ के चरणोंपर लोट गये । आधी रात बीत चुकी थी, इसलिये नाथने उन्हें रातभर अपने ही यहाँ रख लिया और दूसरे दिन उन्हें भोजन कराकर, पुरुषो को धोती और स्त्री को साडी देकर विदा किया ।
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५. गधे को प्राणदान –
काशी की यात्रा करके नाथ रामेश्वर जा रहे थे । रामेश्वरके समीप पहुँचे तब उद्धव आदि पीछे पीछे आ रहे थे और नाथ भगवान् का भजन करते हुए आगे आगे चल रहे थे । ऐसे समय पास के रेतीले मैंदानमें नाथ को एक गधा लोट-पोट करता दिखायी दिया । नाथ उसके समीप गये । देखा, गधा प्यासा है पानीके विना छटपटा रहा है । नाथने तुरंत अपनी काँवर से पानी लेकर उसके मुँहमे डाला । त्यों ही गधा उठा और मजेमें वहांसे चल दिया ।
उद्धव आदि सब लोगो ने पास आकर प्रयागका जल गधेको पिलाते देखा तब मन ही मन उन लोगोंने सोचा कि प्रयागका गंगाजल व्यर्थ ही गया और यात्रा भी निष्कल हो गयी । तब नाथ महाराजने हँसकर उन लोगोंसे कहा- भले मानसो बार बार सुनते हो कि भगवान् पब प्राणियोंके अंदर हैं, फिर भी ऐसे बावरे बनते हो ! समयपर याद न रहे तो वह ज्ञान किस कामका ? प्रसंग पर काम न आना क्या ज्ञानका लक्षण है ? यह मच्छर है और यह हाथी, यह चाण्डाल है और यह ब्राह्मण, यह गौ है और यह गधा इस तरहका भेद क्या आत्मामे भी है ? मेरी पूजा तो यहीं-से श्रीरामेश्वर को पहुंच गयी । भगवान् सर्वगत और सद्रूप हैं। भगवान् से खाली भी क्या कोई जगह हो सकती है? राजा और गधेका देह समान ही तो है । शरीर का परदा हटाकर देखो तो सर्वत्र भगवान् ही है ।
६. श्री विष्णुसहस्त्रनाम का पाठ –
नाथ के मकान के समीप ही एक उद्यमी आदमी रहता था । उसे धन के सिवाय और कोई बात नही सुझती थी । कभी दर्शन के लिये मंदिर जाना, हरिकीर्तन अथवा कथा पुराण सुनने मे उसे कोई आनंद नहीं आता था ।
संत अकारण कृपा करने वाले है। नाथको उसपर दया आ गयी और वह स्वयं ही रोज उसकी दूकान पर जाकर बैठने लगे । नित्य उसे एक श्लोक लिख देते, उससे वह याद करता और फिर दूसरे श्लोक का पाठ देते । यह क्रम था । होते होते उसे अनायास समग्र विष्णुसरहस्त्र नाम कंठ हो गया । तब उससे कहा की इसका पाठ रोज कीया करो ।
इस तरह उसकी वाणीपर कुछ ऐसा संस्कार हुआ की मृत्युकाल मे वह वाणी से विष्णुसहस्त्रनाम का पाठ करता रहा । उसके प्राण अनायास निकले और वह स्वयं विष्णुलोक को प्राप्त हुआ ।
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७. श्री एकनाथ जी द्वारा वेश्या का उद्धार –
पैठणमें एक वेश्या बडी चतुर, सुंदर और नृत्य गायनादिमें निपुण थी । नाथ महाराज के यहाँ श्री हरि कीर्तनादि श्रवण करनेके लिये कोई भी जा सकता था, किसीको भी मनाई नहीं थी । यह वेश्या भी महाराजका भागवत पुराण सुननेके लिये जाया करती थी । उसका पैसा खराब था और दुराचार बढ़ानेवाले पैसे को कोई भी अच्छा नहीं कह सकता । पर यह मानना पड़ेगा कि उसके भी हृदय-में भगन्नाम् का प्रेम था ।
नाथ की अमृतमय वाणी से भागवत के पिंगलाख्यान को जब उसने सुना तबसे उसकी चित्तवृत्तिमे बडी क्रान्ति हो गयी । पिंगला के समान उसके मनमें भी विराग उत्पन्न हुआ । मनुष्यका शरीर कितना गंदा है यह उसने देख लिया और उसे इससे घृणा हो गयी ।
शरीर के अंदर से कैसी विलक्षण दुर्गन्ध आती है । यही दुर्गन्ध नवो द्वारों से रात दिन बहा करती है । मैला बराबर बाहर निकल रहा है । देखकर अपना ही जी अपनेको हट जाता है । ये मल रातदिन जलसे धोनेपर भी साफ होनेवाले नहीं हैं । यह शरीर हड्डी और मांस सेे घिरा विष्ठा मूत्रका गोला है जिसे बार बार आलिंगन किया और फिर भी जिस से जी नहीं भरा । भगवान् श्रीकृष्ण ने जिसे अपना वह सुख दिया जो किसी भी हालतमें नष्ट नहीं होता, उस हदयस्थ आनन्द को मैं भूल गयी और कामकी तृप्ति ही जहाँ नहीं हो सकती उसपर लटूटू हुई । ऐसे ऐसे भाव हृदयमे उठने लगे, उनसे वह वेश्या अत्यन्त सन्तप्त हुई ।
आठ दिन वह अपने घर के द्वार बंद करके अकेली ही बैठो रही । एकनाथ महाराजका बारम्बार स्मरण होता और वह यह सोचती कि क्या इस पापराशीघर के इस घर मे महाराज़ के पवित्र चरण आ सकते है? एक दिन इसी प्रकार वह सोच रही थी, उसी समय गोदवरी स्नान करके एकनाथ महाराज उसी रास्तेसे लौट रहे थे । ऊपर से उसने महाराज को देखा और दरवाजेपर आकर वह बड़े विनम्रतासे बोली – क्या महाराज के चरण इस घरको पवित्र करेंगे? महाराज अंदर आये ।
संत के दर्शन मात्र से उसकी ह्रदयकी सारी पाप – वासनाएँ नष्ट हो गयीं । इसे सच्चा अनुताप हुआ है और इसके हृदय मे सच्चा भगवत् प्रेम जाग उठा है । यह देखकर महाराज के चित्तमे दया आ गयी और उन्होंने उसे ‘रामकृष्णहरी’ मन्त्र का उपदेश कर उसे सत्कर्म का क्रम बताया । मृत्युकाल मे श्रीकृष्ण स्वरूप का ध्यान और नाम जप करते हुए उसने बडी सरलता से देह त्याग किया ।
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८. चोरों का सत्कार-
एकनाथ महाराजके यहाँ एक दिन रातको हरिकीर्तन हो रहा था, जब तीन चोर श्रोताओं की भीड़में घुसे और इस विचार से कि कीर्तन समाप्त होनेपर सब लोग अपने अपने घर चले जायेंगे और घरमें सब लोग सो जायंगे तब अपना काम बनायेंगे, ये लोग मौका देखते हुए एक जगह छिपे बैठे थे । कीर्तन समाप्त हुआ और सब लोग अपने अपने घर चले गये । दो बजे लगभग चेरोंने अपना काम आरम्भ किया । कपडा लत्ता और कुछ अच्छे बर्तन जो हाथ लगे इन्होंने पिछले दरवाजे के पास ला रखे, दरवाजा खोलकर बाहर निकलवाने तैयार हुए, पर इस लोभ से कि और जो कुछ मिल जायें, दबे पाँव घरमे इधर-उधर दूंढ़ने लगे ।
देवगृह के पास पहुंचे, वहां देखा अंदर एक दीपक टिमटिमा रहा है और एकनाथ महाराज आसनपर बैठे समाधि मे मग्न है । यह दृश्य एक बार उन्होंने देखा और उनकी दृष्टि नष्ट हो गयी, फिर उन्हें कुछ दिखायी नहीं दिया । कुछ खुलता ही नहीं था, अगला-पिछला कोई दरवाजा ही नही मिलता था । वे बर्तनोंपर जा गिरे, और नाथ देवगृह से बाहर निकले । चेरों ने यह समझ लिया था की महात्मा के पअपराध से हमलोगों की आंखे अन्धी हो गयी है । वे महाराजक चरणोंपर गिर पड़े और रोने लगे । एकनाथ महाराजने उनकी आंखों पर हाथ फेरा तब उन्हे पूर्ववत दृष्टि प्राप्त हुई। चोर यह चमत्कार देखकर अत्यन्त चकित हुए । उनकी बुद्धि भी पलट गयी ।
उन्होंने महाराज को बता दिया कि हमलोग चोर हैं और चोरी करके ये कपड़े और बर्तन लिये जा रहे थे । चोरोंने कपड़े और बर्तन उन्हें दरवाजेके पास ले जाकर दिखा दिये । एकनाथ महाराजकी ममता अटल थी । उन्होंने चोरोसे कहा तुमलोग बहुत थक गये होगे, इसलिये पहले भोजन कर लो और पीछे यह सब सामान ले जाओ । हमलोग कोई रुकावट नहीं करेंगे । बल्कि तुम्हारे लिये मैं इसे तुम्हारे स्थानतक ढोकर पहुंचा भी सकता हूं । कोई सोच संकोच मत करो । चोरी करना तुम्हारा धन्धा है । तुमलोग यह सब ले जाओ । शान्ति, क्षमा, दया हमलोगो का धर्म है, उसका पालन हमलोग करेंगे । यह कहकर नाथ महाराजने अपनी ऊँगली से अंगूठी निकालकर वह भी उनकी ओर फेंक दी ।
नाथ के इस व्यवहार से वे चोर अत्यन्त चकित हुए तथा और भी अधिक नम्र हो गये। महाराज ने गिरिजाबाई और उद्धव को जगाकर रसोई तैयार करायी और चोरों को भोजन कराया । चोर अपने साथ कुछ भी नही ले गये । ले गये केवल एकनाथ महाराजकी उदारताका स्मरण और उस स्मरणसे शुद्ध होकर उन्होंने चोरी करना छोड़ दिया, वे सदाचारपूर्वक रहने लगे और बार बार एकनाथ महाराज का सत्संग प्राप्त कर के सद्गति को प्राप्त हुए ।
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९. ब्राह्मण और पारस –
पैठण में एक ब्राह्मण के पास पारस पत्थर था ।पारस एक ऐसा चमत्कारी पत्थर होता है जो लोहे को स्पर्श करते ही उसको स्वर्ण में परिवर्तीत कर देता है। इस पत्थर को वह अपने प्राणोंसे भी अधिक प्यार करता था । एक बार उसे यात्राके निमित्त कहीं दूर जाना था । अब यह पारस कहाँ रखा जाय ,इसकी चिंता हुई।
एकनाथ पूर्ण भगवद्भक्त हैं यह जानकर ब्राह्मणने पारस उन्ही के पास दिया। एकनाथ महाराजने उसे देवताओ के सिंहासन के नीचे रख दिया । दूसरे दिन जब उद्धव देवताओं का निर्माल्य उठाने लगे तब उसके साथ पारस भी आ गया । निर्माल्य के साथ पारस भी नदी में गया । देढ वर्ष पश्चात् वह ब्राह्मण लौटा और अपना पारस मांगने लगा । नाथ को अबतक कभी उसका स्मरण भी नहीं हुआ था । उन्होंने उद्धव से कहा कि देखो, सिंहासन के नीचे कहीं होगा उसे उठा लाओ । पर वह अब वहां काहे को मिलता ,उद्धवने कहा कि निर्माल्य के साथ पारस भी गोदावरी नदी में प्रवाह हो गया होगा ।
ब्राह्मणक्रो एकनाथ महाराजपर सन्देह हुआ । सोचा, दालमें कुछ काला है । वह और क्या सोचता ,वह पारस को जितना मूंल्यबान् समझता था, उतना ही मूल्यवान् उसे एकनाथ महाराज भी समझते होंगे, इससे अधिक वह और क्या समझ सकता था ? हर कोई हर किसीको अपनी ही कसौटीपर कसा करता है । वह बेचारा यह क्या जाने कि है भगवान् के चरणोंमें आधे क्षण की स्थिति भी इतने अनुपम आनन्दकी होती है कि उसके सामने भक्तलोग त्रिभुवन की संपत्ति को भी तृणप्राय मानते हैं ।
एकनाथ महाराज उस ब्राह्मण को नदी किनारे ले गये, जलमें उतरकर गोता लगाया और दोनों हाथ भरकर पत्थर उठा लाये, हाथ ऊपर करके बोले – इनमें जो तुम्हारा पारस हो उसे निकाल लो । ब्राहाणने अपनी जेबसे पारसकी परीक्षाके लिये लोह खण्ड निकाला । देखकर आश्चर्य हुआ, सभी के सभी पत्थर पारस थे । एकनाथ महाराजने एक पत्थर उसे दिया और बाकी गंगाजीमें डाल दिये । जिस महात्माके हाथके स्पर्शसे जीव ब्रह्म हो जाता है वह क्या सोना मोतीसे ललचा सकता है ? नालेके लिये वर्षाका भले ही बडा महत्त्व हो पर इससे समुद्रको क्या?
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१०. कुष्ठ रोगी ब्राह्मण पर कृपा –
एक दिन एकनाथ महाराज मध्याह्न संध्याके लिये नदी तट पर जा रहे थे । रास्तेमें एक बच्चा अपनी मांके पीछे दौडता जा रहा था । यह लोग अपने को छोटी जाती का समझते थे। माँ पानी भरने जा रही थी, जल्दीमें कुछ आगे बढ़ गयी और बच्चा पीछे कहीं लड़खड़ाकर गिर पडा । बालूका वह मैदान सूर्य की प्रखर क्रिरणों से भट्ठी हो रहा था । बच्चे के मुंहसे लार और नाकसे सीड़े निकल रही थीं । बच्चा तेजीसे दौड़ नही सकता था और मां को आगे जाते देख उसका मन पीछे लौटनेको भी न होता था ।
इस हालत मे पड़े, धूपसे हैरान उस बच्चे को देखकर नाथका अन्त:करण विकल हो उठा । उन्होंने चट उस बच्चे को गोदमें उठा लिया, उसका नाक मुंह साफ किया और उसे अपनी धोती ओढ़कर धूपखे बचाते हुए उसकी बस्तीमें ले आये । बहां पहुंचते ही बच्चेने अपना घर पहचान लिया । घरमेंसे उसका पिता दौड़ता हुआ बाहर आया, इतने मे मां भी नागरी लिये आ पहुंची । महाराजने बच्चे को उसके मां बापके हवाले किया और बच्चों को ऐसे छोड़ न देना चाहिये, उनको हर तरहसे पालना पोसना चाहिये, इसमें लापरवाही करना ठोक नहीं है इत्यादि उपदेश करक चले गये । स्नान संध्यादि करके महाराज घर गये और नित्य कर्ममें लगे ।
इस घटना के कुछ दिन श्री त्र्यम्बकेश्वर से एक वृद्ध ब्राह्मण पैठणमें आया । इसे कुष्ठरोग हो गया था और उससे यह बहुत ही पीडित था । पैठणमें आकर एकनाथका घर पूछता हुआ बह सीधे एकनाथ महाराजके ही पर पहुंचा । मध्याह्न का समय था । महाराज काकबलि डालने दरवाजेके बाहर आये तो यह दुखी ब्राह्मण उनके पास गया और अपना हाल बताने लगा । अपना नाम ठिकाना सब बताकर उसने कहा- यह कुष्ट जाय इसके लिये मैंने त्र्यम्बकेश्वरमें अनुष्ठान किया । आठ दिन हुए, भगवान् शिव ने स्वप्नमें दर्शन देकर मुझसे कहा कि जाओ तुम पैठणमें जाकर एकनाथसे मिलो और व्याकुल होकर उसने जो एक बच्चे के प्राण बचाये है उसकी उसे याद दिलाओ । इस उपकार का पुण्य यदि वह तुम्हारे हाथपर संकल्प कर दे तो तुम रोगमुक्त हो जाओगे । यह कहकर वह ब्राह्मण रोने लगा और नाथ के चरणोंपर लोट गया ।
नाथ महाराजने ब्राह्मणक्री सब व्यथा सुनी और कहा, मेरे न कोई पाप है न क्रोईं पुण्य । मैंने क्या पुण्य किया यह भगवान् शिव ही जाने ! ऐसा कोई भी पुण्य मैंने जन्मसे लेकर आजतक किया हो, तो मैं उसका तुम्हारे हाथपर संकल्प करता हूँ । है यह कहकर एकनाथ महाराजने जलपात्र हाथमे लिया और संकल्प करनेही बढे थे, इतनेमें उस ब्राहाणने रोका और कहा कि नहीं, आपका सब पुण्य मुझे नहीं चाहिये, केवल उतना ही चाहिये जितने के लिये महादेवकी आज्ञा हुईं है । ब्राह्मणक्री इस इच्छा के अनुसार महाराजने वैसा ही संकल्प किया और जल उसके हाथपर छोड़ा । उसी क्षण उस ब्राह्मणका रोग नष्ट हो गया और उसकी काया निर्मल हो गयी । दस पांच दिन यह ब्राह्मण एकनाथ जी के यहाँ रहा, उनके अलौकिक गुणों को देख-देखकर उसकी प्रसन्नता दिन दिन बढती गयी । उन्ही के गुण गाता वह त्र्यम्बकेश्वर लौट गया ।
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११. संत श्री ज्ञानदेव का दर्शन और ज्ञानेश्वरी के प्रचार की आज्ञा
शाके १५०४ में एकनाथ महाराज पवित्र क्षेत्र आलंदी पधारे जहां संत श्री ज्ञानदेव की समाधी है । आलंदी आने का कारण है की एक दिन महाराज के गले में सूजन आ गयी और पीडा होने लगी । बहुत सी दवाएं की गयी पर सूजन कम न हुई । तीसरे दिन स्वप्न में संत ज्ञानेश्वर महाराज ने दर्शन देकर उनसे कहा, ” मेरे गले में अंजानवृक्ष की जड़ का फंदा पडा हुआ है । उसे तुम स्वयं यहा आकर दूर करो । इससे तुम्हारे गले की पीडा दूर होगी । तब साथमें भक्त समुदाय को लेकर कीर्तन करते हुए एकनाथ महाराज आलंदी पहुंचे । नाथ आलंदी पहुंचे तब वहां बस्ती नहीं थी । चारों और घनी लताये और वृक्ष थे लोग अंदर जाते डरते थे । आलंदी में श्री सिद्धेश्वर का स्थान अत्यन्त प्राचीन है । वहाँ उम समय दिव्य तपोवन था । साथ के लोगो को बाहर ही बैठाकर ज्ञानेश्वर महाराज की समाधि की खोज करने एकनाथ महाराज अकेले ही उस वनमें अंदर गए । समाधि के समीप अंजानवृक्ष था । दूरसे उसे उन्होंने देखा। तब उन्हें बडा ही आनन्द हुआ ।ज्ञानेश्वर महाराज की समाधिपर जो अंजान नामक अश्वत्थ वृक्ष है, वह ज्ञानेश्वर महाराज का ही लगाया हुआ बताया जाता है ।
समाधि मंदिर का द्वार खेलकर वह अंदर गये । सहज वज्रासन लगाकर वहाँ ज्ञानदेव महाराज विराज रहे थे । संत ज्ञानदेव जी के दर्शन होते ही एकनाथ उनके चरणोंपर लोट गये । संत केशवकृत एकनाथ चरित्र में लिखा है कि वहा ज्ञानेश्वर महाराज के साथ एकनाथ महाराज तीन दिन और तीन रात एकान्त मे रहे । श्रीज्ञानेश्वर महाराज ने उन्हे ज्ञानेश्वरी (श्रीमद्भगवद् गीता पर टीका) का प्रचार करने को कहा ।
नाथ जब समाधी मंदिर के बाहर आ गए तब लोगोंने उसका प्रवेशद्वार फिर पत्थर लगाकर चूने से बंद कर दिया । यह घटना शाके १५०५ के ज्येष्ठमास में हुई । आलन्दी में नाथ एकादशी तक रहे । उस दिन उन्होंने कीर्तन किया । नाथके साथ बहुत लोग थे । सबके लिये सीधा सामान -पानी का प्रबन्ध करना बडा कठिन हुआ, तब भगवान् ने एक लिंगायत के वेशमें आकर खंभा गाड़कर वहां एक दूकान खोल दी । द्वादशी के दिन जिसको जितना सीधा सामान,पानी जरूरी हुआ उतना उसे उस दूकानदार से मिल गया । दाम किसी को भी नहीं देना पडा । उस दूकानदार ने किसी से दाम लिया ही नहीं, उसने कहा – एकनाथ समर्थ हैं उनसे हम सब हिसाब समझ लेंगे । जब एकनाथ सब लोगोंके साथ वहांसे चलने-को हुए तब वह लिंगायत अकस्मात् अन्तर्धान हो गया । इस धटना-का वर्णन स्वयं एकनाथ महाराजने दो अभंगो में किया है ।
आलन्दी में ही रहते हुए एकनाथ ने चारों भाई बहन पर (ज्ञानदेव जी और उनके भाई बहन)अभंग रचे और आलंदी की महिमा का वर्णन करते हुए कहा कि यहां के वृक्ष पाषाण सभी देवता हैं । इस स्थानके माहात्म्य-के संबंध में एकनाथ महाराज ने स्पष्ट ही कहा है – अंजानवृक्ष के पत्ते खाकर आलन्दीमें बैठकर जो २१ बार ज्ञानेश्वरी का पारायण करेंगे उन्हें सद्य: ज्ञान प्राप्त होगा । नाथ जब पैठण में लौट आये तब आते ही उन्होंने ज्ञानेश्वरी के संशोधन का काम आरम्भ कर दिया । लेखकों और पाठकों की भूलसे जो अशुद्ध और असंबद्ध पाठ घुस गये थे, उन्हें उन्होंने निकाल दिया और ज्ञानेश्वरी की शुद्ध पोथी तैयार कर दी ।
ज्ञानेश्वरी के संशोधन का यह कार्य शाके १५०६ तारणनाम संवत्सर में समाप्त हुआ । आगे ज्ञानेश्वरी में अपनी कुछ पंक्तिया वे जोड़ने पर वे काम कर रहे थे ।एकनाथ महाराज के समय मे ही पैठणमें मौलाना रून नामके एक मुसलमान औलिया थे । वे बड़े विरक्त, ज्ञानी और स्वानुभव संपन्न महात्मा थे । एक दिन एकनाथ महाराज सनंध्यासमय मस्जिद के याससे होकर जा रहे थे तब उन्होंने इस औलिया को देखा । वह एक शालमे धज्जियाँ लगा रहा था । एकनाथ ने उनसे पूछा, यह आप क्या कर रहे हैं ?उसने उत्तर दिया, मैंने सुना है कि एकनाथ ज्ञानेश्वरी में रद्दोबदल कर के कुछ अपनी बनायी ओवियाँ उसमें छोड़ने वाले हैं । मैं इस शाल में धज्जियाँ लगाकर यह देख रहा हूँ कि वह ज्ञानेश्वरी कैसो होगी ? यह सुनते ही एकनाथ महाराज ने अपना यह संकल्प त्याग दिया और सबके लिये यह निर्बन्ध लगाया कि ज्ञानेश्वरी की दिव्य वाणी में कोई भी अपने शब्द मिलाने का प्रयत्न न करे।
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१२. रनिया महार और उसकी स्त्री
रनिया उर्फ़ विवेक नामका एक महार जाती का व्यक्ति पैठणमें रहता था । वह बडा श्रद्धालु और सदाचारी था । उसकी स्त्री भी उसके ही समान सुशीला थी । स्त्री पुरुष दोनों ही एकनाथ महाराज़ के कीर्तन में प्रतिदिन आया करते थे और बाहर बैठकर नामघोष किया करते थे ।
एकनाथ महाराज गोदावरी स्नान के लिये जायँ उससे पहले रनिया और उसकी स्त्री उनके चलने का रास्ता झाड़ देकर साफ करते थे । एक दिन एकनाथ महाराज ज्ञानेश्वरी(संत ज्ञानदेव द्वारा श्रीमद्भगवद् गीत पर टीका) के प्रवचन में विश्वरूप दर्शन का प्रसंग सुनाया था । प्रवचन जब समाप्त हुआ तब रनिया ने महाराज़ से पूछा – महाराज ! भगवान् श्री कृष्ण ने जब विश्वरूप धारण किया तब यह रनिया कहाँ था ? महाराज ने तत्काल ही उत्तर दिया- तुम भी श्रीकृष्ण रूप में ही थे ।अबतक उन लोगो को लगता था की भगवान् केवल विशिष्ट व्यक्तियो के शरीर में गोटा है पर महाराज की वाणी सुनकर रनिया और उसकी स्त्री ने घर जाकर सोचा की जब सारे विश्व में भगवान् ही रम रहे हैं, तब हमारा शरीर महार जाती का होनेपर भी अपने हृदय मे तो भगवान ही विराज रहे हैं ।
कुछ दिन बीतने पर उन पति-पत्नी की यह इच्छा हुई कि एक दिन एकनाथ महाराज को अपने यहाँ भोजन के लिये बुलाना चाहिये । उनका इस प्रकार समागम होनेसे इम-लोगो का उद्धार हो जायगा । रनिया और उसकी स्त्री शुचिता और स्वच्छता के साथ रहा करते थे, अशुद्ध पदार्थ को ग्रहण अथवा स्पर्श भी नहीं करते थे । मुखसे सदा भगवान् के नामका जप करते हुए अपने प्रत्येक काम में दक्ष रहते थे । शरीर अवश्य ही महारका था, पर अनावरण सर्वथा ब्राहाणका सा था । उनकी बिरादरी के लोग विनोदसे उन्हें अपनी बिरादरी का ब्राह्मण ही कहा करते थे और शुद्धाचरण तथा भगवद्भक्तिमें तो वे दोनों सचमुच ही लाखों महात्माओ की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ थे । एकनाथ महाराज को उन्होंने एक दिन भोजन के लिये न्योता दिया ,नाथ महाराज ने उसे स्वीकार किया । नगर के कुछ लोगो जब यह बात मालूम हुई तब उन्होंने बडा कोलाहल मचाया ।
नाथ महाराज ने इस कोलाहल का यही उत्तर दिया कि है वह अन्त्यज तो है उसके ज्ञानमें मेंरा-तेरा हैं इस भेदभाव की कोई पहचान नहीं है । लोगो ने सोचा कि देखे, एकनाथ महाराज उस रनिया के यहाँ केसे भोजन करने जाते हैं । एकनाथ महाराज के घरसे रनिया के घरतक रास्ते में थोड़ेथोड़े दूरीपर ब्राह्मणो को वहाँ बिठा दिया । नाथ बेखटके सबके सामने घर से बाहर निकले और रनिया के घर पहुँचे । रनिया और उसकी स्त्री ने एक साथ उनकी पूजा की, भोजन के लिये आसन बिछाया, थाल रखी, चौक पूरा और महाराज से बैठने-के लिये प्रार्थना की ।
महाराज आसनपर बैठे, पक्वान्न परोसे गये और महाराजने भोजन किया । पर इसी समय एक चमत्कार हुआ । वह यह कि जिस समय नाथ यहाँ भोजन कर रहे थे, उसी समय बहुतो ने उन्हें अपने घरपर भी उसी रूप और भेषमें देखा था । एक ही एकनाथ एक ही समयमे कहां तो अपने घरपर भागवत का प्रवचन कर रहे हैं और कहां उसी समय रनियाके यहाँ भोजन भी कर रहे हैं । यह चमत्कार जब उन निंदक लोगो और ब्राह्मणोंने देखा तब उन्हें बडा ही आश्चर्य हुआ और उनके लिये यह समझना कठिन हो गया कि उन दोनों में से सच्चे एकनाथ कौन हैं ? तब कुछ व्यक्तियो ने कहा की महाराज तो कबसे कथा प्रवचन में लगे हुए है। अंत में वे लोग समझ गए की संत एकनाथ बड़े महात्मा है ,रनिया का सद्भाव जानकर भक्तवत्सल भगवान् पाण्डुरंग ने ही एकनाथ के भेषमें रनिया के घर जाकर भोजन किया होगा ।
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१३. कैदखाने से भागे चोर का उद्धार
पैठण मे एक व्यक्ति चोरी करके ही अपनी जीविका चलाता था । एक दिन चोरी करता हुआ वह पकडा गया, पैरों मे बेडियां पडी और कारागार पहुँचाया गया । कारागार में उसे खाने को नही मिला, शरीर को बड़े कष्ट हुए, सिरपर बाल बढे, उनमें जूएँ पड़ गयी और सर्वांग विकल हो गया । इस हालत मे उसके पैरों की बेडियाँ निकाल ली गयी और छोड़ दिया गया । वो वही बाहर लोट पोट करता पडा रहता था ।
एक दिन रात को इसी हालत मे उसने एकनाथ महाराज के कीर्तन की ध्वनि दूर से आती हुई सुन ली और सुनते ही उसे अपना छुटकारा करा लेने की बात सूझी। वह धीरे धीरे रेंगता हुआ हिम्मत करके कैदखाने के परिसर से बहार निकला और किसी तरह रास्ता तय करके श्री एकनाथ महाराज के द्वारपर जा पहुंचा । उसकी रोने की आवाज ज्यों ही नाथ महाराज के कानों मे पडी त्यों ही वह बाहर आये । उसके मुँहसे स्पष्ट शब्द नहीं निकल याता था, फिर भी संकेत से उसने सुझा दिया कि पेट मे अन्न नहीं है । नाथ महाराज ने तुरंत खीर तैयार कराके उसके मुँह मे डाली । बिछाने और ओढ़ने को वस्त्र दिये ।
तीन महीने वह नाथ महाराज के यहाँ रहा, उसकी बडी सेवा सुश्रुषा हुई और तीन महीने मे वह पहले जैसा पुष्ट हो गया । भगवान के प्रसाद का ऐसा प्रभाव पड़ा कि उसकी सारी मलिन वासनाएँ धुल गयीं । एकनाथ महाराज के प्रति उसके हृदयमे परम पूज्यभाव उत्पन्न हुआ । पहले का कुमार्ग छोड़कर महाराज की कृपा से वह भगवान्की भक्ति में लग गया ।
इस घटना के कुछ काल बाद एक दिन की बात है की नाथ गोदावरी स्नान को जा रहे थे, रास्ते मे एक अश्वत्थ वृक्ष के नीचेसे होकर ज्यों ही महाराज आगे बढे त्यों ही वृक्षपर रहनेवाला ब्रह्मराक्षस नीचे उतरकर महाराज के सामने खडा हो गया । उसने महाराज़ से कहा -आजतक आपनेे जितने संत ब्राह्मणो को भोजन कराया, उन सबका अथवा कैदखाने से भगाकर आये हुए व्यक्ति की जो आपने सेवा की उसका, दोनो में से किसी एक का पुण्य मुझे दीजिये, इससे मैं इस योनि के भयंकर कष्टो से मुक्त हो जाऊँगा ।
एकनाथ महाराज ने कैदखाने से छूटे हुए व्यक्ति की सेवा सुश्रुषा के पुण्यपर जल छोडा और जल छोडने पर ब्रहाराक्ष दिव्य शरीर धारण करके भगवान् के धाम को चला गया ।
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१४. नाथपुत्र हरि पण्डित का अभिमान दूर होना और एक भक्ता का संकल्प पूर्ण करना
संत श्री एकनाथ के पुत्र श्रीहरि पण्डित बड़े विद्वान् और बुद्धिमान।थे । अल्प आयु मे ही इन्होंने सब शास्त्रो का अध्ययन पूरा किया । इन्हे एकनाथ महाराज का ढंग पसन्द नही था । इन्हे संस्कृत भाषा का बडा अभिमान था और इनके पिता जो सरल जनता को समझ मे आये इस कारण मराठी भाषा मे ग्रन्थ लिखते, मराठी मे ही कीर्तन और प्रवचन करते । यह बात इन्हे गौरवजनक नहीं मालूम होती थी । एकनाथ जी उन्हें समझाया करते थे की विविध संतो ने अपने प्रांतीय भाषा में अपनी वाणी को प्रकट किया है, जिस कारण कलयुग के मूढ़ जड़ बुद्धि जीवो का उद्धार हो सके । वाणी कोई भी हो बस भगवान् से जोड़ दे यही संतो का मत है, पर हरी पंडित को यह सब बात नहीं पसंद आती ।
श्री एकनाथ जी के चित्तमें ऊंच नीच, ब्राह्मण शूद्रका कोई भेद भाव नही था । हरि पण्डित वर्णाश्रम के पूर्ण अभिमानी थे । एकनाथ महाभक्त के नाते सभी जनों को अत्यन्त प्रिय थे और हरि पण्डित भी पैठण के विद्वानों और कर्मठ ब्राहाणों को प्रिय थे । हरि पण्डित शीलवान् थे, तथापि पिता के विचारों से सहमत न होने के कारण वह अपनी सहधर्मिणी तथा अपने प्रह्लाद और मेघश्याम नामक दो पुत्रों को साथ ले अपने विचारो के अनुकूल क्षेत्र जान काशी चले गये । राघव नामक उनका पुत्र घर ही एकनाथ महाराज के पास रहा । राघव बचपन से ही अपने दादा की ही बात मानता था, उन के कहे अनुसार चलता था और एकनाथ महाराज जब कीर्तन करते तब राघव उनके पीछे खडा रहकर ध्रुपद अलापता था ।
हरि पण्डित काशी पहुंचते ही वहा के विद्वानो में सर्वमान्य हुए । वहां उन्हे रहने के लिये एक घर भी मिल गया और काशी में उनकी अच्छी धाक जमी । चार वर्ष इस प्रकार बीतनेपर हरि पण्डित को समझाने के लिये एकनाथ महाराज स्वयं काशी गये । एकनाथमहाराज कुछ दिन वहां रहे और पुत्र को मनाने लगे । हरि पण्डित ने दो शर्तोपर पैठण चलना स्वीकार किया । एक तो यह की एकनाथ महाराज मराठी ग्रंथो पर प्रवचन न करे और दूसरे परान्न ग्रहण न करे । एकनाथ महाराज ने इन दोनों शर्तो को मंजूर किया । तब हरि पण्डित उनके साथ पैठण गये । पैठण मे अब एकनाथ महाराज के बदले हरि पंडित के प्रवचन होने लगे ।
एकनाथ महाराज जो अब वृद्ध हो गये, पुत्र के प्रवचन सुनने के लिये श्रोताओ मे बैठ जाते थे । हरि पण्डित विद्वान् तो बहुत बड़े थे, पर एकनाथ जी के प्रवचन के समय जैसी श्रोताओं की भीड़ होती थी वैसी हरी पण्डित की कथा मे नही होती थी । एकनाथ महाराज जान गये और उन्होंने मन मे यह विचारा की इसके मन मे भीड़ इकठ्ठा करने और सत्कार पाने की भावना है । इसको पतन से बचाना चाहिए ।
पैठण में एक स्त्री ने कभी एक बार सहस्त्र ब्राह्मण भोजन कराने का संकल्प किया था, आगे उसका पति मर गया, घर मे जो कुछ सम्पत्ति थी यह भी नष्ट हो गयी और ऐसा समय आया कि उसे पेटके लिये लोगों के यहाँ पानी भरने का काम करना पडा । पर इस हालत मे भी उसकी यह इच्छा थी कि सहस्त्र ब्राह्मण-भोजन का जो संकल्प किया है वह पूरा हो, पर यह नही समझ में आता था की कैसे पूरा हो । गाँव मे एक विद्वान थे, उन्होंने उसे यह सलाह दी कि एक ब्रह्मनिष्ठ भक्तिभाव संपन्न ब्राह्मण को भोजन करा दो, इससे सहस्त्र ब्राह्मणों को भोजन करानेका पुण्य लाभ होगा । ऐसा ब्रह्मनिष्ठ ब्राह्मण एकनाथ के सिवाय और कौन हो सकता है ? उसने एकनाथ जी को भोजन के लिये बुलाने का निश्चय किया । वह उनके पास गयी और विनती करने लगी ।
एकनाथ जी ने स्वीकार कीया और रसोई बनाने के लिये स्वयं हरि पण्डित को उसके घर भेजा, क्योंकि हरी पंडित ने परान्न ग्रहण न करने की शर्त वाराणसी से आते समय जो राखी थी । हरी पण्डित ने अपने हाथ से रसोई बनायी और एकनाथ महाराज को स्वयं परोसकर भोजन पवाया । उस स्त्री को बडा आनन्द हुआ । एकनाथ महाराज ने हरि पण्डित को कहा कि जूठी पत्तल भी तुम्ही उठाकर फेंक दो । हरि पण्डित पिताकी आज्ञा से ज्यो ही पत्तल उठाने लगे तो एक पत्तल के नीचे और पत्तल आते जा रहे है , एक फेकते तो नीचे दूसरी पत्तल, दूसरी फेकते तो नीचे तीसरी इस तरह एकनाथ जी ने जिस पत्तलपर भोजन किया था उसके नीचे एक हजार पत्तलें निकली ।
एक सहस्त्र ब्राह्मण भोजन का संकल्प इस तरह भगवान् की कृपा से पूरा हुआ देखकर उस स्त्री के आनन्द की कोई सीमा न रही और हरि पण्डित का गर्व भी चूर चूर हो गया,वो समझ गए की संत एकनाथ जी महान संत है । वह पिता की शरण मे गये और एकनाथ जी के कृपापात्र हुए ।
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१५. श्रीकृष्ण द्वारा नौकर के रूप मे बारह साल तक एकनाथ जी के घर सेवा करना –
एकनाथ महाराजकी भक्ति एवं अगाध प्रेम से मोहित होकर भगवान् श्रीकृष्ण ब्राह्मण वेशमें एक बार नाथके घर आये और उन्हें नमस्कार कर सामने खड़े हो गये । उस समय उन दोनोंका इस प्रकार संवाद हूआ :
नाथ – आप केसे आये?
ब्राह्मण – आपका नाम सुना, इच्छा हुई कि आपके साथ अखण्ड समागम हो और आपकी कुछ सेवा बन पड़े इसीलिये आया हूं । सदासे मैं सन्तोका सेवक ही रहा हूं । मुझे वेतन नहीं चाहिये । पेटभर अन्न प्रसाद मिले और आपकी सेवा हो, इतनी ही इच्छा है ।
नाथ – आपके परिवार में कौन-कौन हैं ?
ब्राह्मण- मैं अकेला ही हूँ मेरे न कोई स्त्री है न बच्चे । इस शरीर को श्रीखण्डिया कहते है ।
नाथ – आपसे सेवा लेनेक्री मुझे कोई आवशयकता नहीं है। तथापि आप अन्न-वस्त्र लेकर आनन्दसे यहाँ परमार्थ साधन कर सकते हैं ।
ब्रह्मण- बस, इतनी ही कृपा चाहिये। अपने कष्टसे अन्न प्राप्त करनेकी इस दासको अनुमति हो । मेरी सेवा आप अवश्य ग्रहण करें।
श्रीखंड्या नाथके घर रहने लगा । उसने अपने गुणोंसे सबको मोह लिया । भगवान् की लीला कुछ ऐसी अपरंपार है कि सब प्राणियोंमें भगवान् को देखनेवाले नाथ भी उनके उस वास्तविक रूपको नहीं पहचान सके । भगवान् ने अपनी मायाका परदा बीच मे रखा, अन्यथा नाथ जैसे भक्तश्रेष्ठ एक क्षण भी भगवान् से सेवा कराते? भगवान् एकनाथ महाराजके यहाँ नित्य पानी भरें, देव्-पूजाके निमित्त चन्दन घिसें, ब्राह्मण-भोजनके पश्चात् जूठी पत्तलें उठायें और नाथकी हर तरहसे सेवा करें ।
जिनके चरणों से भागीरथी प्रकट हुई वह नाथके घर पूजाके लिये पानी भरा करते थे । देव पुजा के निमित्त चन्दन घिसा करते थे । लक्ष्मी जिनके पांव तले पड़ी रहती है वह नाथ पत्नी के चरणों के पास बैठा करते थे । नाथ के पैर दबाया करते थे । चंदन घिसने की सेवा करते । नाथके घर श्रीखण्ड (दिव्य चन्दन) घिसकर उन्होंने अपना श्रीखंड्या नाम सार्थक किया । भगवान् अपने सारे ऐश्वर्यको भुलाकर नाथके घर बारह वर्ष सेवा करते रहे । भूतदया जिनके रोम रोमसे प्रकट हो रही थी, उन एकनाथके घर वह भूतभावन भूतेश स्वयं सेवक बनकर रहे । इस प्रकार जब बारह वर्ष चीते । तब भगवान् ने स्वयं अन्तर्धान होकर भक्तका यश प्रकट करनेका संकल्प किया । उम समय द्वारका मे एक ब्राह्मण अनुष्ठान कर रहा था । सदा सुखसे ‘कृष्ण कृष्ण’ कहा करता था । उस ब्राहाणक्रो भगवान् ने स्वप्नमे दर्शन देकर कहा कि मै पैठणमे एकनाथ के घरपर हूं। उसकी सेवा से मैं प्रसन्न हुआ है । वहाँ श्रीखण्डिया नाम धारणकर मै रहता हूं, वहाँ जाओ, वहां मेरे दर्शन होंगे । वह ब्राह्मण पैठणमें पहुंचा और एकनाथ महाराज का मकान पता करके उनसे कहने लगा – मुझे श्रीकृष्णके दर्शन कराइये । उसकी वह हालत देखकर नाथ महाराजने कहा – श्रीकृष्ण तो सर्वत्र रम रहे है । वह सम्पूर्ण विश्वके अन्दर और बाहर व्याप्त है जहाँ हो वहीं देखो, तब तुम्हें वह दर्शन देंगे ।
यह सुनकर उस ब्राह्मणने कहा, ‘ मुझे इस ब्रहाज्ञानकी जरूरत नही । मुझे तो भगवान् ने यह स्वप्न दिया है कि एकनाथ महाराजके यहाँ तुझे मेरे साक्षात् दर्शन होंगे । श्रीखण्डिया कहां है, यह मुझे बताइये । उससे मुझे मिलाइये । यह सुनते ही एकनाथजी के हृदयपर चोट लगी और उद्धव आदि सब लोग श्रीखण्डिया को दूँढ़ने निकले । चारों और खोज हुई पर कहीं पता न लगा । नाथ अपने आसनपर बैठे थोडी देर ध्यानमग्न हो गये और उनके ध्यान मे सब बातें आ गयी । नाथ रोमांचित हो उठे और फिर सोचने लगे, ‘ भगवान् को मैने कितना कष्ट दिया है लगातार बारह वर्ष उनसे ऐसी सेवा करायी । एकनाथ जी और गिरिजाषाई दोनों ही बेबस होकर रोने लगे । फिर उन्होंने भगवान् को पुकारा । उस समय साक्षात् भगवान् श्रीकृष्ण सामने प्रकट हुए । एकनाथ, गिरिजाबाई और उस तपस्वी ब्राह्मणक्रो अत्यानन्द हुआ । तीनो भगवान् के चरणोंपर लोट गये । वह वार्ता बात ही बातमें सर्वत्र फैल गयी और एकनाथ महाराजक दर्शनोंके लिये हजारों लोग दौड़े आये ।
श्रीखंड्या जिस कुण्डेमें पानी भरा करता था, वह कुण्डा अभीतक एकनाथ महाराजके घर मे है और षष्ठी के दिन लोग हजारों गगरी पानी उसमें डालें तो भी, कहते हैं कि जबतक भगवान् की गगरी भरकर उसमे नही डालते, तबतक वह नहीं भरता और ज्यों ही भगवान् की गगरीका पानी उसमें आ जाता है, त्यों ही पानी भरकर बाहर बहने लगता है।
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१६. श्री एकनाथ जी का वैकुण्ठ धाम पधारना –
शाके १५२१ (संवत् १६५६ ) का फाल्गुन मास आया । चैत बदी ६ का दिन उदय हुआ और गुरुपूजा तथा ब्राह्मणभोजन हो जानेपर नाथ बोले की अब शरीर छोड़नेका समय है । उनका शरीर स्वस्थ था । किसी प्रकार का कोई विकार या पीड़ा नहीं थी । सभी मनुष्य उनके कहेनुसार नदी किनारे एकत्र हुए । एकनाथ महाराज का अन्तिम कीर्तन हुआ । उनके मुख से निकले हुए अमृताक्षर सुनकर सब लोग चित्रवत मुग्ध और तल्लीन हो गये । आरती हुई, प्रसाद बाँटा गया । नाथ फिर नदी मे उतरे । पूर्ण स्वस्थता के साथ उन्होंने गोदावरी स्नान किया और श्री कृष्णस्वरूप का ध्यान करने लगे,वह ध्यान फिर कभी न टूटा । वह उसी परमानन्द में लीन हो गये ।
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