श्री भक्तमाल ४ – श्री परमानंदाचार्य जी
Shri Bhaktamal Shri Parmanand Ji
श्री पूर्णजी (परमानंदाचार्य) की महिमा अपार है, कोई भी उसका वर्णन नहीं कर सकता है । आप उदयाचल और अस्ताचल – इन दो ऊँचे पर्वतो के बीच बहनेवाली सबसे बडी (श्रेष्ठ) नदी के समीप पहाड़ की गुफामे रहते थे । योग की युक्तियों का आश्रय लेकर और प्रभु मे दृढ विस्वास करके समाधि लगाते थे । व्याघ्र, सिंह आदि हिंसक पशु वहीं समीप मे खड़े गरजते रहते थे, परंतु आप उनसे जरा भी नही डरते थे । समाधि के समय आप अपान वायु को प्राणवायु के साथ ब्रह्माण्ड को ले जाते थे, फिर उसे नीचे की ओर नहीं आने देते थे ।
१. श्रीरामजी द्वारा औषधि लाकर देना :
श्री पूर्ण जी भगवत्कृपा प्राप्त श्री रामभक्त सन्त थे । एक बार आपका शरीर अस्वस्थ हो गया । आपको औषधि के लिये औंगरा (अपामार्ग जडी) की आवश्यकता थी । आस पास उस समय कोई नही था जिससे जडी लाने कहा जाये । इनके मन की बात जानकर भगवान् श्री रामचन्द्रजी ने एक ब्राह्मण का रूप धारण किया और औंगरा लाकर दिया । जिससे ये स्वस्थ हो गये । भगवत्कृपाका अनुभव करके आप प्रेम-विभोर हो गये । आप पूर्णतया अकाम और सभी प्रकार की आसक्तियोंसे रहित थे ।
२. यवन बादशाह की कन्या पर कृपा :
एक बार एक यवन-बादशाह ने आपके इन्द्रिय -संयम की परीक्षा लेनी चाही, किंतु पूर्ण जी उसमें पूर्ण सफल रहे । वह प्रसंग इस प्रकार है – आश्रम से कुछ दूरपर नगर था, वहाँ यवन बादशाह रहता था । उसकी कन्या ने एक दिन श्री पूर्णजी का दर्शन किया । उसके मन को बड़ी प्रसन्नता हुई । उसके बाद कुछ दिन उनका सत्संग किया तो वह अत्यन्त ही प्रभावित हो गयी । उसके बाद उसने रोज उनके दर्शन का नियम बना लिया । उसने अपने पिता से कहा कि मै दूसरे किसी के साथ व्याह न करूँगी । संसारी सुखों की मुझे बिल्कुल इच्छा नही है । आप मुझे श्री पूर्णजी की सेवा मे रख दीजिये ।
बादशाह ने श्री पूर्णजी के पास आना जाना प्रारम्भ किया और अपनी दीनता व सेवा से उन्हें प्रसन्न कर लिया । श्रीपूर्ण जी ने कहा की – मै तुमपर प्रसन्न हूं, तुम जो चाहो सो माँग लो । तब उसने यही वरदान माँगा की मेरी कन्या को आप अपनी सेवा में रख लीजिये । यह अन्यत्र नहीं जाना चाहती है । आपने कहा की हम विरक्त साधु हैं, यद्यपि तुम्हारी कन्या पवित्र है और मै भी पवित्र हूं परंतु यदि मैने ऐसा किया तो आगे भविष्य मे जो विरक्त महात्मा होंगे वह कहेंगे की पूर्ण जी ने भी तो अपने पास स्त्री को रखा था, हम रखे तो क्या दिक्कत है ?
यवन बादशाह का मन हुआ की इनकी परीक्षा लेंगे । उसने कहा – ठीक है, यह मेरे ही महल में रहेगी मगर आपके दर्शन करने तो आ सकती है? पूर्ण जी ने कहा की दर्शन करने तो सब आ सकते है । अब वह रोज आकर सत्संग करने लगी । बहुत काल बीत गया लेकिन पूर्ण जी के मन मे थोड़ा भी विकार नही आया । आप पूर्ण अकाम थे, अत: इस परीक्षा मे उत्तीर्ण हुए । कुछ काल बाद यवन कन्या सत्संग लाभ लेकर सद्गति को प्राप्त ही गयी ।
३. श्री हनुमान जी का दर्शन और सभी सिद्धियां प्राप्त होना :
एक बार आप स्वर्णरेखा नदी के तट पर स्थित पीपल की छाया मे विराजे थे । भगवत्स्मरण करते हुए शान्त एकान्त मे आपको निद्रा आ गयी । वृक्ष की खडखडाहट से आपकी नींद खुली तो आपने एक अद्भुत विशाल वानर को पीपलपर इधर उधर कूदते देखा । यह सोच में पड़ गए कि यह अद्भुत वानर कौन है ? उसी समय वानर के मुख से दासोऽहं राघवेन्द्रस्य (मै श्री राघवेंद्र प्रभु का दास हूं) यह स्पष्ट सुनायी पडा । साक्षात् श्री हनुमान जी है, यह जानकर आपने साष्टांग दण्डवत प्रणाम किया और हनुमदाज्ञा से उसे पवित्र स्थल जानकर आपने वहीं अपना निवासस्थान बनाया और वहां श्री हनुमान जी की प्रतिमा स्थापित की । भगवन्नाम जप के प्रभाव से आपमे सर्वसिद्धियाँ आ गयी । सुख शान्ति के निमित्त आनेवाले जनसमुदाय के मनोरथ पूर्ण होने लगे । आपकी प्रसिद्धि हो गयी ।
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४. हनुमान जी द्वारा यवनों से रक्षा और पूर्ण जी की योगसिद्धि का दर्शन :
वह अकबर का शासन-काल था । दुष्ट यवन हिन्दू धर्म मे अनेक प्रकार से बाधा करते थे । साधु का सुयश न सह सकने वाले यवन अधिकारियों ने आदेश दिया कि शंख – घंटा नाद मत करो । आपने सुनी – अनसुनी कर दी । सायंकाल को आपने जैसे ही शंखध्वनि की, कई सिपाहियों के साथ मुस्लिम थानेदार इनायत खाँ पकडने आया । उसी समय श्री हनुमान जी ने मंदिर के चारों ओर बड़े-बड़े बन्दरों की भीड़ ने सेना का रास्ता रोक लिया । बंदरो ने उनके शरीर को नोंच लिया और कपड़े फाड़ दिए । ऐसे विशाल वानर उन यवनों ने कभी नही देखे थे। सब चिल्लाते हुए भाग गए ।
दूसरे दिन शंख बजते ही वे लोग और बड़ी सेना लेकर पुन: पकड़ने आये तो उनके आश्वर्य का ठिकाना न रहा । उन्हें वहां श्री पूर्ण जी का छिन्न-भिन्न मृत शरीर पड़ा मिला । उन्होंने कही हाथ, कही पैर, कही मस्तक पड़ा हुआ देखा । वे खुश हुए की साधू मर गया और लौट चले । अभी थोड़ी दूर पहुँचे थे उतने मे पुन: शंख ध्वनि होने लगी । वापस आकर देखा तो पूर्ण जी को आसान पर बैठ कर शंख बजाते हुए पाया । वे सब डरकर भाग गए । इनायत खाँ समझ गया कि यह हिंदु फ़क़ीर सिद्ध है । इनायत खां ने इनकी देखी हुई सिद्धियों का चमत्कार अकबर को लिख भेजा ।
५. अकबर को पुत्र प्राप्ति का आशीर्वाद और विराट स्वरूप का दर्शन :
उस समय अकबर बादशाह को पुत्र की कामना थी, अत: वह जगह जगह पुत्र प्राप्ति हेतु भटक रहा था । एक दिन वह हाथीपर चढकर श्री पूर्ण जी के पास आया । श्री परमानन्दाचार्य जी(पूर्ण जी) ने उसके मन की बात जानी की अपने बदशाहीयत के अहंकार मे सिर ऊंचा करके इतना बड़े हाथी और सैन्य को लेकर आया है । इसको संत के पास आने की विधि नही मालूम । अकबर अपने मन मे उस समय हिंदू संतो को श्रेष्ठ नही समझता था । मुस्लिम फकीरों के पास बड़ी विनम्रता से जाता था लेकिन हिन्दू संतो के पास राजापन के अहंकार ही साथ लेकर जाता था ।
श्री पूर्ण जी जिस चौकीपर बैठे थे, उसको ऊपर उड़ने का आदेश दिया । चौकी सहित उड़कर आकाश मे हाथी के हौदे से ऊपर स्थित हो गये और उनके पैर जाकर अकबर से सिर से जा लगे । उन्होंने अकबर से कहा – गर्व छोडो, सम्पत्ति और राज्य नश्वर है । तुम हिंदू मुस्लिम दोनो मे भेद मत करो । हिंदू प्रजा और संतो को सताना बंद करो । मेरे आशीर्वाद से पुत्र तो प्राप्त होगा परंतु वह पुत्र तो सन्त हो जायगा । तुम्हे तो अपने पुत्र को अपनी गद्दी पर बिठाकर उसे राजा बनाने की इच्छा है । अत: तुम सलीम शाह चिस्ती (फतेहपुर सीकरी) के पास जाकर उनसे आशीर्वाद प्राप्त करो ।
श्री परमानन्दाचार्य जी के वैष्णव तेज युक्त रूप को देखकर अकबर को एक क्षण के लिए भगवान के विराट स्वरूप का ध्यान हो आया और तब उसने हाथ जोड़कर कहा – आप तो साक्षात भगवान के रूप में पूर्ण विराट हैं -आप पूर्णवैराठी है । तभी से आपका यह नाम प्रसिद्ध हो गया । अकबर ने चरणों मे गिरकर क्षमा मांगी और रत्नजटित टोपी भेट की १२ ग्राम जागीर के रूप में दिए ।
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६. दीक्षा और गद्दी :
पूर्वाश्रम में आपका नाम परमेश्वर प्रसाद था । श्री स्वामी अनंतानंदाचार्य के प्रशिष्य खेमदासजी से आपने सं १५७५ मे विरक्त वेश की दीक्षा ली । नाम दीक्षा श्री अग्रदास जी से प्राप्त हुई थी । ग्वालियर में आपकी गद्दी है । यह स्थान वैष्णवो के ५२ द्ववरो में से एक है और गंगादास जी के नामपर संस्थापित गंगादास जी की बडी शाला ग्वालियर मे प्रसिद्ध है ।
इस आश्रम का इतिहास इस प्रकार है -१८५७ की क्रांति के समय स्थान के महंत श्री गंगादास जी महाराज थे। वीरांगना महारानी लक्ष्मीबाई भी इन्ही की शिष्या थी । १८५७ के स्वाधीनता समर में झांसी की रानी अंग्रेज़ो से लड़ते हुए विजयश्री वरण करती हुई ग्वालियर आयी । रानी लक्ष्मीबाई ने ग्वालियर पर विजय प्राप्त की और अपना लश्कर (सेना) स्वर्णरेखा नदी के किनारे -वर्तमान में जो फूलबाग मैदान है ,वहां लगा दिया । अंग्रेजो को पता चला कि रानी लक्ष्मीबाई ने ग्वालियर जीत लिया है और आगे समय हाथ से निकल गया तो वह और भी आस पास के क्षेत्रों पर जीत हासिल कर लेगी । अंग्रेजों ने बड़ी सेना सहित ग्वालियर पर हमला कर दिया । रानी अभी जीत की खुशियां मना भी नही पाई थी की अंग्रेजो का आक्रमण हो गया । रानी और उसकी कुछ सेविकाओं ने मर्दो जैसे कपड़े पहन लिए और युद्ध लड़ने चली गयी । युद्ध मे रानी बुरी तरह घायल हो कर एक स्थान पर गिर पड़ी। मर्दो जैसे कपड़े पहनने के कारण अंग्रेज उसको पहचान नही पाए और उसे वही छोड़ दिया। रानी को पता था कि अब उसके प्राण नही रहेंगे। पीठ पर उनका पुत्र भी था ।
रानी ने इच्छा जताई की वह अब गुरुदेव की शरण मे जाना चाहती है । उनके कुछ वफादार सेवक उनको श्री गंगादास जी के पास लेकर गए । महारानी ने श्री गंगादास जी के चरणों मे प्रणाम करके यह प्रार्थना की की वे तुलसी गंगाजल प्रदानकर उन्हें अंतिम विदा दे। महारानी ने यह भी प्रार्थना की कि उनका पार्थिव शरीर फिरंगियों के हाथ न लगने पाये । अंग्रेज रानी का पता लगाते हुए आश्रम पर आए और उन्होंने आश्रम को चारों ओर से घेर लिया ।
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श्री गंगादास जी ने तत्काल अपने अखाड़े के साधुओ को आश्रम और रानी के देह की रक्षा करने की आज्ञा दी। उस समय लगभग १२०० साधु उपस्थित थे और अंग्रेजो की सेना बहुत बड़ी थी । अपने गुरुदेव के आदेश पर वे सब साधु अंग्रेजी सेना से युद्ध करने लगे और उनके भयंकर आक्रमण को देखते हुए अंग्रेज़ हैरान रह गए । वे कल्पना भी नही कर सकते थे कि यह तिलक , तुलसी धारी – घंटा शंख बजाने वाले साधु ऐसा भयंकर युद्ध कर सकते है । अंग्रेज़ो की बहुत बड़ी सेना को उन साधुओ ने मार भगाया परंतु इस युद्ध मे ७४५ संत शहीद हो गए और महारानी के प्राण भी नही बचे । उन साधुओ ने तलवार, भाले, नेजे, चिमटे आदि जो भी हथियार युद्ध के समय उपयोग में लाये थे – वे आज भी आश्रम मे सुरक्षित रखे हुए है ।
श्री गंगादास जी ने महारानी के पुत्र को उनके विश्वस्त अनुचर के साथ सुरक्षित स्थान पर भेज दिया । इतने सब साधुओ और महारानी का अंतिम संस्कार करने के लिए उस समय लकड़ियां कम पड गयी । अंग्रेजो ने आश्रम को लगभग नष्ट कर दिया था । श्री गंगादास जी ने बची हुई अपनी झोपड़ी को ही गिराकर रानी के लिए चिता बना दी और उनका वैदिक रीति से अंतिम संस्कार किया । जहां रानी का अंतिम संस्कार हुआ था वही पर आज भी उनकी समाधि स्थित है । अंतिम संस्कार होने के बाद श्री गंगादास जी महाराज शेष बचे हुए साधु संतों को लेकर ग्वालियर के बाहर वन को चले गए ।
कुछ समय बाद शांति स्थापित होने पर ग्वालियर रियासत के महाराज श्री जियाजीराव सिंधिया ने स्वयं जाकर श्री गंगादास जी महाराज से प्रार्थना की कि वे पुनः आश्रम पर लौट चले । श्री गंगादास जी के मना करने पर राजा ने तीन दिन भूखे प्यासे रहते हुए कहा कि यदि महाराज श्री आश्रम पर नही लौटेंगे तो वे भी अपनी रियासत में नही जाएंगे । राजा पर प्रसन्न होकर महाराज श्री पुनः ग्वालियर आये और उन्होंने आश्रम को पुनः उसी रूप में स्थापित कराया। महाराज श्री के नामपर ही आश्रम का नाम श्री गंगादास जी के बड़ी शाला प्रसिद्ध हो गया ।
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