श्री भक्तमाल कथा – १. भगवान श्री शंकर | Shri Bhaktmal Katha Part 1

Shri Bhaktamal Katha - Bhagwan Shankar

श्रीभक्तमाल कथा – भगवान शिव

१. परम वैष्णव और रामायण के आदि आचार्य –

Shri Bhaktamal Katha – Bhagwan Shankar – हस्तेऽक्षमाला हृदि कृष्ण तत्वं जिह्वाग्र भागे वरराम मन्त्रम् । यन्मस्तके केशवपादतीर्थम शिवं महाभागवतं नमामि ।।

जिनके हस्तकमल में रुद्राक्ष की माला है ,हृदयमे श्री कृष्ण तत्त्व विराजमान है,जिह्वके जिह्वाके अग्रभागमे निरंतर सुंदर राम मंत्र है,जिनके मस्तकपर भगवान् नारायण के चरण कमलो से निकली गंगा विराजमान है,ऐसे महाभागवत,परम भक्त,उपासक श्री शिवजीको नमस्कार है।

तीनों लोकोंमें यदि श्रीराम का कोई परम भक् है तो वह वैष्णवोंमें अग्रगण्य वैष्णवाचार्य आदि-अमर कथावक्ता, महादेव ही हैं। श्री शिवजी महा मन्त्र ‘श्रीराम ‘ का अहर्निश जप करते रहते है ।

भगवान् शंकर रामायण के आदि आचार्य हैं। उन्होंने राम-चरित्र का वर्णन सौ करोड़ श्लोकों में किया है।श्री शिवजी ने देवता ,दैत्य और ऋषि मुनियोंमें श्लोकों का समान बँटवारा किया तो हर एक के भागमें तैतीस करोड़, तैतीस लाख ,तैतीस हजार तीन सौ तैतीस श्लोक आये।

कुल निन्यानबे करोड़, निन्यानबे लाख ,निन्यानबे हजार नौ सौ निन्यानबे श्लोक वितरित हुए। एक श्लोक शेष बचा ।देवता, दैत्य ,ऋषि- ये तीनों एक श्लोक के लिये लड़ने-झगड़ने लगे । यह श्लोक अनुष्टुप् छ्न्दमें था। अनुष्टुप् छ्न्दमें बत्तीस अक्षर होते हैं। श्रीशिवजी ने प्रत्येक को दस-दस अक्षर वितरित किये। तीस अक्षर बँट गए तथा दो अक्षर शेष बचे । तब शिवजीने कहा – ये दो अक्षर अब किसीको नही दूँगा । ये अक्षार मैं अपने कण्ठमे ही रखूँगा । ये दो अक्षर ही ‘रा’ और ‘म’ अर्थात् रामका नाम है,जो वेदोंका सार है।

राम-नाम अति सरल है ,अति मधुर है, इसमें अमृतसे भी अधिक मिठास है। यह अमर मन्त्र है,शिवजीके कण्ठ तथा जिह्वाग्रभाग में विराजमान है,इसीलिये जब सागर-मंथनके समय हालाहल -पान करते समय शिव-भाक्तोमें हाहाकार मच गया, तब भगवान् भूतभावन भवानीशंकर ने  सबको सान्त्वना-आश्वासन देते हुए कहा –

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श्रीरामनामामृतमन्त्रबीजं संजीवनी चेन्मसि प्रविष्टा।
हालाहलं वा प्रलयानलं वा मृत्योर्मुखं व विशतां कुतो भी: ।। (आनन्दरामायण, जन्मकाण्ड ६।४३ )

भगवान् श्रीरामका नाम सम्पूर्ण मन्त्रोका बीज मूल है, वह मेरे सर्वाङ्गमें पूर्णतः प्रविष्ट हो चुका है, अतः हालाहल विष हो, प्रलयानल-ज्वाला हो या मृत्युमुख ही क्यों न हो मुझे इनका किंचित् भी भय नहीं है।  यह कहते हुए शिवजी विष -पान कर गये।वह विष अमृत बन गया। उसी दिनसे उनका नाम ‘नीलकण्ठ’ पड़ गया। इस कारण और सब ‘देव’ है और शिवजी ‘महादेव’ है।

महामंत्र जोइ जपत महेसू ।
(रा.च.मा.१।११।३)

वह राम-नाम ही है जिसे वे माता पार्वती के साथ निरन्तर जपते रहते है । यथा –
अहं भवन्नाम गृणन् कृतार्थो वसामि काश्यामनिशं
भावन्या । मुमूर्षमाणस्य विमुक्तयेऽहं दिशामि मन्त्रं तव रामनाम ।। (अध्यात्मरामायण ६।१५।५२)

यही नहीं आज भी काशीमें विराजमान भगवान् शिव मरणासन्न प्राणियोंको मुक्ति दिलानेके लिये उनके कानमें तारक मन्त्र- रामनाम का उपदेश देते हैं।अनन्त जीवोंको भी तारते है । यथा-

रामनाम्ना शिवः कश्यां भूत्वा पूतः शिवः स्वयम्।
स निस्तारयते जीवराशीन् काशीश्वर: सदा ।।
(शिवसंहिता २।१४)

भगवान् शिव अपने प्राण-धन भगवान् श्रीरामका अहर्निश निरन्तर नाम-स्मरण करते रहते है।श्री राम नाम तारक तथा ब्रह्मसंज्ञक है और ब्रह्महत्यादि सम्पूर्ण पापोंका विनाशक है।यथा-

श्रीरामेति परं जाप्यं तारकं ब्रह्मसंज्ञकम् ।
ब्रह्महत्यादिपापघ्नमिति वेदविदो विदुः ।।

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२. श्री शिव जी और भगवन की बाल लीलाएं –

जब-जब भगवान् ने अवतार लिया,तब-तब भगवान् श्रीशंकर अपने आराध्यके बाल-रूपके दर्शन हेतु विचित्र,विभिन्न वेष बनाकर अवध आदि क्षेत्रो में आये।रामवतारमें श्री शंकरजी काकभुशुण्डिको बालक बनाकर और स्वयं ज्योतिषी का वेष धारण कर अयोध्याके रनिवास मे प्रवेश कर गये। कौसल्यादि माताओं ने शिशु राम को ज्योतिषी की गोद मे बैठा दिया ,तब पुलकित होकर शंकर जी ने उनका हाथ देखा, चरण देखे और गोद मे खिलाया ।

जब श्रीराम ने द्वापर मे श्री कृष्णावतार लिया तो बाबा भोलेनाथ अलख जगाते हुए,बाघम्बर पहने शृंगीनाद करते हुए जा पहुंचे व्रज-गोकुलमें नन्दबाबा के द्वार ।यशोदा मैयाने बाबाका भयंकर रूप,लिपटे हुए सर्प,अंगमे भस्म ,लंबी जटाएँ ,लाल नेत्र देखकर लालाका दर्शन नहीं कराया ।बाबाने द्वारपर धूनी लगा दी,श्रृंगीनाद किया, लाला दर गया और रोने लगा ।चुप ही नहीं हो रहा है,लालाको नजर लग गयी है यह समझकर सखीको भेजकर बाबाको बुलवाया।बाबाने लाला कन्हैया को गोदमें लिया।चारणोंको अपनी जाटासे लगाया, चुम्बन किया,लाल हँसने लगा,नजर उतर गयी।आज भी नंदगांव में बाबा ‘नंदीश्वर ‘ नाम से विराजमान है।

यही नहीं अपने इष्ट श्रीरामकी अनन्य सेवाकी उत्कट अभिलाषासे भगवान् शिवने श्रीहनुमानजी के रूपमें अवतार लिया।तन,मन ,धनसे श्रीरामकी निः स्वार्थ भावसे सेवा की। जिस प्रकार भगवान् शंकर के इष्ट राम है उसी प्रकार श्रीरामके इष्ट शंकरजी है।मूलतः जो श्रीराम है वे ही श्रीशंकर है और जो श्रीशंकर है वे ही श्रीराम है। भक्तों के परमाराध्य उस हरी-हरात्मक स्वरूपको नामस्कार है-

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‘एकात्मने नमस्तुभ्यं हरये च हराय च । ‘

३. परम सूंदर शिव जी –

एक बार श्री गणेश जी ने भगवान् शिव जी से कहा, पिताश्री आप ये चिताभस्म लगा कर,मुण्डमाला धारण कर अच्छे नही लगते ।  मेरी माता गौरी अपूर्व सुंदरी और आप उनके साथ इस भयंकर रूप में  । पिता जी आप एकबार कृपा करके अच्छे से स्नान कर के माता के सम्मुख आये जिससे हमआपका असली स्वरुप देख सके । भगवान् शिव जी ने गणेश जी की बात मन ली। कुछ समय बाद जब शिव जी स्नान कर के लौटे , शारीर पर चिता भस्म नहीं ,बिखरी जटाएं सवरी हुई , मुण्डमाला उतरी हुई ।  सभी देवता, यक्ष, गन्धर्व और शिवगण अपलक उन्हें देखने लगे, वो ऐसा रूप था की मोहिनी अवतार रूप भी फीका पड जाए । भगवान् शिव ने अपने स्वरुप को कभी देखा ही नहीं और न कभी प्रकट किया ।

*इस कारण से ही वे मोहिनी रूप पर मुग्ध हो गए थे परंतु ऐसा नहीं है की भगवान् शिव कामासक्त हो गए थे । भगवान् श्री कृष्ण ने यह लीला क्यों की है –  मोहिनी अवतार के २ हेतु  है । पहला देवताओ को अमृत पान और दूसरा महिषासुर का वध । स्वयं कृष्ण ने भगवान् शिव की संतान को जन्म दिया था । महिषासुर नामक एक राक्षस को यह वरदान प्राप्त था कि उसका अंत केवल शिव और विष्णु के पुत्र द्वारा ही हो सकता है। *

शिवजी का ऐसा अतुलनीय रूप की करोडो कामदेव को भी मलिन किये दे रहा था । गणेश जी अपने पिता की मनमोहक काया देखकर स्तब्ध रह गए और मस्तक झुका कर बोले – मुझे क्षमा करे पिता जी, परन्तु अब आप आपने पूर्व स्वरूप को धारण कर ले। शिव जी ने पूछा – क्यों पुत्र अभी तो तुमने ही मुझे इस रूप में देखेने की इच्छा प्रकट की थी, अब पुनः पूर्व स्वरुप में आने की बात ? गणेश जी ने मस्तक झुकाये हुए ही कहा, क्षमा करे पिता जी, परन्तु मेरी माता से सुंदर कोई दिखे मैं ऐसा नही चाहता। शिवजी  पुनः अपने  पूर्व स्वरुप को धारण कर लिए। कई संत महात्माओ ने अपने अनुभव से कहा है की कर्पुरगौर शंकर तो श्री राम से भी सुंदर है परंतु वे अपना निज स्वरुप कभी प्रकट नहीं करते क्योंकि इससे उनके प्रियतम आराध्य राम की यश प्रशंसा में कमी होगी ।

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४.सेवक का भाव –

भगवान् श्री शिव वेैष्णवो में अग्रगण्य है ,वे अपने स्वामी रामचंद्र जी की प्रसन्नता के लिए कुछ भी कर सकते है । एक बार सप्तऋषियों में यह चर्चा हो रही था कि ब्रह्मा, विष्णु और शंकर में से बड़ा कौन है ? इसका निश्चय करने के लिए उन्होंने भृगु ऋषि से प्रार्थना की । भृगु ऋषि जब शिव जी के पास गए उन्होंने शिवजी का अपमान किया तब उन्होंने ने ऋषि पर क्रोध करके कैलाश से भगा दिया ।  क्या वैष्णवो में अग्रगण्य शिव कभी संत का निरादर कर सकते है ? यह उन्होंने इसीलिए किया की यदि मै संत से उचित व्यवहार करू तो मेरे प्रभु नारायण मेरे बराबर हो जायेंगे ।

यदि ये ऋषि मुझे श्रेष्ठ समझ लेंगे तब मेरे प्रभु नारायण के यश में कमी होगी । शिव तो श्री राम के सेवक ,सखा और स्वामी तीनो ही है । परंतु उन्हें श्री राम का दासत्व अति प्रिय है । स्वामी और सेवक में किसी भी प्रकार बराबरी नहीं हो सकती । ना रूप में ,ना शरीर में ,ना आचरण में । यदि शिव और नारायण दोनों भृगु ऋषि से समान व्यवहार करते तो निश्चय हो नहीं पाता की कौन बड़ा है । जब भगवान् राम ने मनुष्य रूप में अवतार लिया तो शिव ने वानर रूप में अवतार लिया । यही भगवान् शंकर का विशेष गुण है ,यही उनका रहस्य है ।

५. नाम से प्रेम – 

शंकर‘ का अर्थ है- कल्याण करनेवाला । अत: भगवान् शंकरका काम केवल दूसरोंका कल्याण करना है । जैसे संसारमें लोग अन्नक्षेत्र खेलते है, ऐसे ही भगवान् शंकर ने  काशीमें मुक्तिका क्षेत्र खोल रखा है ।पूज्यपाद गोस्वामीजी महाराज कहते हैं—

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मुक्ति जन्म महि जानि ग्यान खानिअघ हानि कर ।
जई बस संभू भवानि सो कासी सेइअ कस न ।। (मानस ४ । १ सो०) 

भगवान् शंकर का श्रीराम नामपर बहुत स्नेह है । एक बार कुछ लोग एक मुर्दे को श्मशान  ले जा रहे थे और राम नाम सत्य है ऐसा बोल रहे थे । शंकरजीने अपने राम जी का नाम सुना तो वे भी उनके साथ हो गये । जैसे पैसो की बात सुनकर लोभी आदमी उधर खिंच जाता है, ऐसे ही राम नाम सुनकर शंकरजीका मन भी उन लोगों की ओर खिंच गया । शंकर जी ने सोचा यह मुर्दा अच्छा व्यक्ति होगा जिसके काराण सब लोग राम नाम ले रहे है।अब लोगोंने मुर्दे को श्मशान में ले जाकर जला दिया और वहाँ से लौटने लगे ।

शंकरजी ने देखा तो विचार किया कि बात क्या है अब कोई आदमी राम नाम ले भी नहीं रहा है । उनके मनमें आया कि उस मुर्दे में ही कोई करामात थी, जिसके कारण ये सब लोग राम नाम ले रहे थे । अत: उसीके पास जाना चाहिये,उस से मिलना चाहिए । शंकरजी ने श्मशान जाकर देखा कि वह तो जलकर राख हो गया है । अत: शंकरजीने उस मुर्दे की राख अपने शरीर में लगा ली और वहीं रहने लगे ।राख और मसान दोनों शब्दों में पहले अक्षर लेने से ‘राम’ हो जाता ।

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एक कवी तो कहते है कि सती के नाम में ‘र’ अथवा ‘म’ कार नहीं है इसलिए शंकरजी ने सती का त्याग कर दिया।जब सती ने हिमाचल के यहाँ जन्म लिया,तब उनका नाम गिरिजा हो गया। इतनेपर भी शंकर जी मुझे स्वीकार नहीं करेंगे ऐसा सोचकर पार्वती जी तपस्या करने लगी। जब उन्होंने सूखे पत्ते भी खाना छोड़ दिए तब उनका नाम अर्पणा हो गया।  गिरिजा और अर्पणा दोनों में ‘र’ कार आता है अतः शंकर जी इतने प्रसन्न हुए कि उन्हें अपनी अर्धांगिनी बना लिया।इसी तरह जब गंगाजी का नाम भागीरथी पड़ा तब शंकर जी ने उन्हें अपनी जटाओं में धारण किया।

वे दिन रात राम नाम का जप करते रहते है। केवल दुनिया के कल्याण के लिये ही राम नामका जप करते है, अपने लिये नहीं । शंकर के हृदय मे विष्णु का और विष्णु के हृदयमे शंकर का बहुत अधिक स्नेह है । शिव तामसमूर्ति है और विष्णु सत्त्वमूर्ति है पर एक दूसरे का ध्यान करने से शिव श्वेतवर्णके और विष्णु श्यामवर्ण के हो गये । वैष्णवोंका तिलक (ऊर्ध्वपुधड्र) त्रिशूलका रूप है और शैवोंका तिलक (त्रिपुष्ठड्र) धनुषका रूप है । अत: शिव और विष्णु मे भेद बुद्धि नहीं होनी चाहिये ।

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संकर प्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास । ते नर करहि कलप भरि घोर नरक महुँ बास ।। (मानस ६ । २) 

६. श्री शिव जी अतिशीघ्र प्रसन्न होते है –

भगवान् शंकर आशुतोष (शीघ्र प्रसन्न होनेवाले) है । वे थोडी सी उपासना करनेसे ही प्रसन्न हो जाते है । इन विषयों अनेक कथाएं प्रसिद्ध है ।

•एक बधिक था । एक दिन उसको खानेके लिये कुछ नहीं मिला । संयोगसे उस दिन शिवरात्रि थी । रात्रिके समय उसने वनमें एक शिवमन्दिर देखा । वह भीतर गया । उसने देखा कि शिवलिंग के ऊपर स्वर्णका छत्र टंगा हुआ है । अत: वह उस छत्रको उतारनेके लिये जूतीसहित शिवलिङ्गपर चढ़ गया । कोई पुष्प, कोई बेल ,कोई फल अर्पण करता है परंतु इसने अपने आपको मेरे अर्पण कर दिया यह मानकर भगवान्  शंकर उसके सामने प्रकट हो गये ।

•एक कुतिया खरगोशको मारनेके लिये उसके पीछे भागी । खरगोश भागता भागता एक शिवमन्दिरके भीतर घुस गया । वहां वह शिवलिंग की परिक्रमामें भागा तो आधी  परिक्रमामें ही कुतियाने खरगोशको पकड़ लिया । शिवलिङ्ग की आधी परिक्रमा हो जानेसे उस खरगोश की मुक्ति हो गयी ।

•शिवपुराण में भगवान शिव की एक कथा है, जिससे स्पष्ट होता है कि वे थोडी सी सेवा से ही अतिशीघ्र प्रसन्न हो जाते हैं। एक सामान्य व्यक्ति रात्रि बिताने के लिए बेल-वृक्ष पर आसीन हो गया। वृक्ष के पत्ते ओस की बूंदों से भीगे हुए थे। सुबह जब वह वृक्ष से नीचे उतरा, तो विस्मय से भर आया। उसके समक्ष जटाजूटधारी,गर्दन में सर्प लपेटे, बाघम्बर पहने, शरीर पर भस्म लपेटे एक गौरवर्णीव्यक्ति खडा था, जिसके सिर पर अ‌र्द्ध-चंद्रमा शोभित था। वह घबरा कर बोला-आप कौन?

मैं कैलाशवासी सदाशिव हूं। तुम्हारी पूजा से प्रसन्न हूं। तुम्हें दर्शन देने के लिए प्रकट हुआ हूं। मैंने तो आपकी कोई पूजा नहीं की। वह व्यक्ति बोला। और यह क्या है? सदाशिवने उंगली से इंगित किया। उस व्यक्ति ने देखा, वहां एक शिवलिंगथा, जिस पर पानी की कुछ बूंदेंऔर बेल-वृक्ष के कुछ पत्ते पडे हुए थे। वह समझ गया कि वृक्ष पर उसके द्वारा हिलने-डुलने से ओस की कुछ बूंदेंऔर पत्ते इस शिवलिंगपर पड गए हैं।

मैंने तो कोई विधि-विधान से आपकी पूजा नहीं की। जो भी हुआ अनजाने में। प्रसन्न होने की कोई बात नहीं। कोई बात नहीं जैसा भी हुआ, तुम्हारे माध्यम से शिवलिंगपर जल और बिल्व-पत्र तो पड गए। मेरी पूजा पूरी हो गई।

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इससे स्पष्ट होता है कि दीन-हीन और समाज के उपेक्षित लोगों के लिए कोई देवता हैं, तो वे शिव ही हैं।

भगवान् शंकर बहुत भोले सरल है । भस्मासुर ने उनसे यह वरदान मांगा कि मैं जिसके सिर हाथ रखूं वह भस्म हो जाय तो शंकरजीने उसको वरदान दे दिया । अब पार्वतीको पाने की इच्छासे वह उलटे शंकरजीके ही सिर हाथ रखनेके लिये भागा तब भगवान् विष्णु उन दोनोंके बीचमे आ गये और भस्मासूर को रोककर बोले कि कम से कम पहले परीक्षा  करके तो देख लो कि शंकरका वरदान सही है या नहीं । भस्मासुरमे बिष्णु की मायासे मोहित होकर अपने सिरपर हाथ रखा तो वह तत्काल भस्म हो गया । इस प्रकार सीधे सरल होनेसे शंकर किसीपर संदेह करते ही नहीं, किसीको जानना चाहते ही नहीं, नहीं तो वे पहले ही भस्मासुरकी नीयत जान लेते ।

भगवान शंकर से वरदान मांगना हो तो पूर्ववत नरसीजी की तरह मांगना चाहिये, नहीं तो ठगे जायेंगे। जब भक्त नरसीजी को भगवान् शंकारने दर्शन दिये और उनसे वरदान मांगनेके लिये कहा, तब नरसीजीने कहा कि जो चीज अपको सबसे अधिक प्रिय लगती हो, वही दीजिये । भगवान् शंकरने कहा कि हमको श्री भगवान् (कृष्ण राम)सबसे अधिक प्रिय लगते है, अत: मैं तुम्हें उनके ही पास ले चलता हूँ । ऐसा कहकर भगवान् शंकर उनके गोलोक ले गये । तात्पर्य है कि शंकरसे वरदान माँगनेमें अपनी बुद्धि नहीं लगानी चाहिये ।

पूज्य श्री रामसुखदास जी महाराज ने लिखा है –
शंकर जी की प्रसन्नताके लिये साधक प्रतिदिन आधी रातको (ग्यारहसे दो बजेके बीज) ईशानकोण (उत्तर पूर्व) क्री तरफ मुख करके ‘ॐ नम: शिवाय’ मन्त्र की एक सौ बीस माला जप करे । यदि गंगा का तट हो तो अपने चरण उनके बहते हुए जलमे डालकर जप करना अधिक उत्तम है । इस तरह छ: मास करनेसे भगवान् शंकर प्रसन्न हो जाते है और साधक को दर्शन, मुक्ति, ज्ञान दे देते है ।

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७.भगवन शंकर की अद्भुत गौ भक्ति 

एक बार भगवान् शिव अत्यंत मनोहारी स्वरुप धारण करके भ्रमण कर रहे थे।यद्यपि दिगंबर वेश है ,शरीर पर भस्म रमाये है सुंदर जटाएं है परंतु ऐसा सुंदर भगवान् का रूप करोडो कामदेवों को लज्जित कर रहा है।

ऋषि यज्ञ कर रहे थे और शंकर जी वहा से अपनी मस्ती में रामनाम अमृत का पान करते करते जा रहे थे। भगवान् शिव के अद्भुत रूप पर मोहित होकर ऋषि पत्नियां उनके पीछे पीछे चली गयी। ऋषियो को समझ नहीं आया की यह हमारे धर्म का लोप करने वाला अवधूत कौन है जिसके पीछे हमारी पत्नियां चली गयी। पत्नियो नहीं रहेंगी तो हमारे यज्ञ कैसे पूर्ण होंगे?

ऋषियो ने ध्यान लगाया तो पता लगा यह तो साक्षात् भगवान् शिव है। ऋषियो को क्रोध आ गया, ऋषियो ने श्राप दे दिया और श्राप से भगवान् शिव के शरीर में दाह(जलन) उत्पन्न हो गया। शंकर जी वहां से अंतर्धान हो गए। हिमालय की बर्फ में चले गए, क्षीरसागर में गए, चन्द्रमा एवं गंगा जी के पास भी गए परंतु दाह शांत नहीं हुआ। भगवान् शिव अपने आराध्य गोलोकविहरि श्रीकृष्ण के पास गए,उन्होंने गौ माता की शरण जाने को कहा। अतः भगवान् शिव गोलोक में श्री सुरभि गाय का स्तवन करने लगे। उन्होंने कहा –

सृष्टि, स्थिति और विनाश करनेवाली हे मां तुम्हें बार बार नमस्कार है । तुम रसमय भावो से समस्त पृथ्वीतल, देवता और पितरोंको तृप्त करती हो । सब प्रकारके रसतत्वोंके मर्मज्ञो ने बहुत विचार करनेपर यही निर्णय किया कि मधुर रसका आस्वादन प्रदान करनेवाली एकमात्र तुम्ही हो । सम्पूर्ण चराचर विश्व को तुम्हीने बल और स्नेहका दान दिया है । है देवि! तुम रुद्रों की मां, वसुओकी पुत्री, आदित्योंकी स्वसा हो और संतुष्ट होकर वांच्छित सिद्धि प्रदान करनेवाली हो । तुम्ही धृति, तुष्टि, स्वाहा, स्वधा, ऋद्धि, सिद्धि, लक्ष्मी, धृति ( धारणा), कीर्ति, मति, कान्ति, लज्जा, महामाया, श्रद्धा और सर्वार्थसाधिनी हो ।

तुम्हारे अतिरिक्त त्रिभुवनमें कुछ भी नहीं है । तुम अग्नि और देवताओ को तृप्त करनेवाली हो और इस स्थावर जंगम-सम्पूर्ण जगत्में व्याप्त हो । देवि ! तुम सर्वदेवमयी, सर्वभूत समृद्धिदायिनी और सर्वलोकहितैषिणी हो, अतएव मेरे शरीरका भी हित करो । अनघे ! मैं प्रणत होकर तुम्हारी पूजा करता है । तुम विश्व दु:खहारिणी हो, मेरे प्रति प्रसन्न हो । है अमृतसम्भवे ! ब्राहाणों के शापानलसे मेरा शरीर दग्ध हुआ जा रहा है, तुम उसे शीतल करो ।

गौ माता ने कहा- मेरे भीतर प्रवेश करो तुम्हे कोई ताप नहीं तापा पायेगा। भगवान् शिव ने सुरभि माताकी प्रदक्षिणा की और जैसे ही गाय ने ‘ॐ मा ‘ उच्चारण किया शिव जी गौ माता के पेट में चले गए। शिव जी को परम आनंद प्राप्त हुआ।

इधर शिवजीके न होनेसे सरे ज़गत् में हाहाकार मच गया ।शिव के न हिने से सारी सृष्टि शव के सामान प्रतीत होने लगी। शिव जी के न होने से रूद्र अभिषेक एवं यज्ञ कैसे हो? तब देवताओ ने स्तवन करके ब्राह्मणों को प्रसन्न किया और उससे पता लगाकर वे उस गोलोकमें पहुंचे, जहाँ पायसका पङ्क, घीकी नदी, मधुके सरोवर विद्यमान हैं । वहाँके सिद्ध और सनातन देवता हाथोंमें दही और पीयूष लिये रहते हैं ।

गोलोक में उन्होंने सूर्यके समान तेजस्वी ‘नील’ नामक सुरभि सुतको गौ माता के पेट में देखा । देवता एवं ब्राह्मणों की स्तुति विनती सुनने पर भगवान् शंकर ही इस वृषभके रूपमें अवतीर्ण हुए थे । देवता और गुनियोंने देखा गोलोक की नन्दा, उक्ति, स्वरूपा, सुशीलका, कामिनी, नन्दिनी, मेध्या, हिरण्यदा, धनदा, धर्मदा, नर्मदा, सकलप्रिया, वामनलम्बिका, कृपा, दीर्घशृंगा, सुपिच्छिका, तारा, तोयिका, शांता, दुर्विषह्या, मनोरमा, सुनासा, गौरा, गौरमुखी, हरिद्रावर्णा, नीला, शंखीनी, पञ्चवर्णिका, विनता, अभिनटा, भिन्नवर्णा, सुपत्रिका, जया, अरुणा, कुण्डोध्नी, सुदती और चारुचम्पका- इन गौओके बीचमें नील वृषभ स्वच्छन्द क्रीडा कर रहा है ।

उसके सारे अङ्ग लाल वर्णके थे । मुख और मूंछ पीले तथा खुर और सींग सफेद थे । बाएं पुट्ठे पर त्रिशूल का चिन्ह और दाहिने पुट्ठे पर सुदर्शन का चिन्ह था । वही चतुष्पाद धर्म थे और वही पच्चमुख हर थे । उनके दर्शनमात्रसे वाजपेय यज्ञका फ़ल मिलता है । नीलकी उसे सारे जगत की पूजा होती है ।

नीलको चिकना ग्रास दैने से जगत् तृप्त होता है। देवता और ऋषियोने विविध प्रकारसे नीलकी स्तुति करते हुए कहा –

देव !तुम वृषरूपी भगवान् हो ।जो मनुष्य तुम्हारे साथ पापका व्यवहार करता है, वह निश्चय ही वृषल होता है और उसे रौरवादि नरकोंकी यन्त्रणा भोगनी पडती है । जो मनुष्य तुम्हें पैरोंसे छूता है, वह गाढ़े बंधनो मे बंधकर, भूख-प्याससे पीडित होकर नरक-यातना भोगता है और जो निर्दय होकर तुम्हें पीडा पहुँचाता है, वह शाश्वती गति-मुक्तिको नहीं पा सकता । ऋषियोद्वारा स्तवन करनेपर नीलने प्रसन्न होकर उनको प्रणाम किया ।अतः वृषभ भगवान् का वाहन ही नै अपितु भगवान् शिव का अंश भी है।

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८. श्रीशिवजी वृषभध्वज और पशुपति कैसे बने ?

समुद्र मंथन से श्री सुरभि गाय का प्राकट्य हुआ। गौ माता के शारीर में समस्त देवी देवता एवं तीर्थो में निवास किया। देवताओ ने गौ माता का अभिषेक किया और श्री सुरभि गाय के रोम रोम से असंख्य बछड़े एवं गौए उत्पन्न हुये ।उनका वर्ण श्वेत(सफ़ेद) था। वे गौ माताए एवं बछड़े विविध दिशाओ में विचरण करने लगे।

एक समय सुरभीका बछड़ा मांका दूध पी रहा था । गौ एवं बछड़ा उस समय कैलाश पर्वत के ऊपर आकाश में थे। भगवान् शिव ने उस समय समुद्र मंथन से उत्पन्न हलाहल विष पान किया था अतः उनके शरीर का ताप बढ़ने से भगवान् शिव श्री राम नाम के जाप में लीन थे। गौ के बछड़े के मुखसे दूधकां झाग उड़कर श्रीशंकरजीके मस्तकपर जा गिरा ।

इससे शिवजीक्रो क्रोध हो गया, यद्यपि शिवजी गौमाता की महिमा को जानते है परंतु गायो का माहात्म्य प्रकट करने के लिए उन्होंने कुछ लीला करने हेतु क्रोध किया। शंकर जी ने कहा कि यह कौन पशु है जिन्होंने हमें अपवित्र किया? शंकर जी ने अपना तीसरा नेत्र खोला ,परंतु गौ माताओ को कुछ नहीं हुआ। शंकर जी की दृष्टि अमोघ है अतः कुछ परिणाम तो अवश्य होगा। इसलिए गौ माता शिवजी की दृष्टि से अलग अलग रंगो में परिवर्तित हो गयी। तब प्रजापति ब्रह्मा ने उनसे कहा-

प्रभो ! आपके मस्तकपर यह अमृतका छींटा पडा है । बछडोंके पीनेसे गायका दूध जूठा नहीं होता । जैसे अमृतका संग्रह करके चन्द्रमा उसे बरसा देता है, वैसे ही रोहिणी गौएं भी अमृत सेे उत्पन्न दूध को बरसाती हैं । जैसे वायु, अग्नि, सुवर्ण, समुद्र और देवताओंका पिया हुआ अमृत कोई जूठे नहीं होते, बैसे ही बछडों को दूध पिलाती हुई गौ दूषित नहीं होती । ये गौएँ अपने दूध और घी से समस्त जगत् का पोषण करेंगी । सभी लोग इन गौओ के अमृतमय पवित्र दूध रूपी ऐश्वर्यकी इच्छा करते हैं ।

इतना कहकर सुरभि एवं प्रजापति ने श्रीमहादेव जी को कईं गौएँ और एक वृषभ दिया । तब शिवजी ने भी प्रपत्र होकर वृषभ को अपना वहन बनाया और अपनी ध्वजा को उसी बृषभके चिह्नसे सुशोभित किया । इसीसे उनका नाम ‘ वृषभध्वज पड़ा । फिर देबताओ ने महादेवजी को पशुओ-का स्वामी (पशुपति ) बना दिया और गौओके बीच में उनका नाम बृषभांक है रखा गया । गौएं संसार की सर्वश्रेष्ठ वस्तु हैं । वे सारे जगत् को जीवन देनेवाली हैं । भगवान् शंकर सदा उनके साथ रहते हैं । वे चन्द्रमा से निकले हुए अमृत्तसे उत्पन्न शान्त, पवित्र, समस्त कामनाओ को पूर्ण करनेवाली और समस्त प्राणियोंके प्राणों की रक्षा करनेवाली हैं ।

निम्नगानां यथा गङ्गा देवानामच्युतो यथा ।
वैष्णवानां यथा शम्भु: पुराणानामिदं तथा

Shri Bhaktamal Katha – Bhagwan Shankar

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